स्थूल दृष्टि से प्रसव के साथ सिर पर आए वालों को हटाकर खोपड़ी की सफाई करना आवश्यक होता है, सूक्ष्म दृष्टि से शिशु के व्यवस्थित बौद्धिक विकास, कुविचारों के उच्छेदन, श्रेष्ठ विचारों के विकास के लिए जागरूकता जरूरी है । स्थूल-सूक्ष्म उद्देश्यों को एक साथ सँजोकर इस संस्कार का स्वरूप निर्धारित किया गया है । इसी के साथ शिखा स्थापना का संकल्प भी जुड़ा रहता है । हम श्रेष्ठ ऋषि संस्कृति के अनुयायी हैं, हमें श्रेष्ठत्तम आदर्शो के लिए ही निष्ठावान तथा प्रयासरत रहना है, इस संकल्प को जाग्रत रखने के लिए प्रतीक रूप में शरीर के सर्वोच्च भाग सिर पर संस्कृति की ध्वजा के रूप में शिखा की स्थापना की जाती है ।
मुण्डन (चूडाकर्म) संस्कार
संस्कार प्रयोजन
इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं । लौकिक रीति यह प्रचलित है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ । यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं ।
इन्हें हटाने और उस स्थान पर मानवतावादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने का कार्य इतना महान् एवं आवश्यक है कि वह हो सका, तो यही कहना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति तो पशु की बनी रही । ऐसे नर-पशुओं की संसार में कमी नहीं, जो चलते-बोलते तो मनुष्यों की तरह ही हैं; पर उनके आदर्श और मनोभाव पशुओं जैसे होते हैं । ईश्वर की अनुपम देन को निरथर्क गँवाने वाले इन लोगों को अभागा ही कहना पड़ता है । जीव साँप की योनि में रहते हुए बड़ा क्रोधी होता है, अपने बिल के आसपास किसी को निकलते देख ले, तो उस पर बड़ा क्रुद्ध होकर प्राण हरण करने वाला आक्रमण करने से नहीं चूकता ।
कितने ही मनुष्य उन क्रूर संस्कारों को धारण किये रहते हैं और छोटा सा कारण होने पर भी इतने क्रुद्ध, कुपित होते हैं कि उस आवेश में सामने वाले का प्राण हरण कर लेना भी उनके लिए कठिन नहीं रहता । जिन जीवों को शूकर की योनि के अभ्यास बने हुए हैं, वे अभक्ष्य खाने में कोई संकोच नहीं करते । मल-मूत्र, रक्त, माँस, कुछ भी वे रुचिपूवर्क खा सकते हैं, वरन् मेवा, फल दूध, घी जैसे सात्त्विक पदार्थों की उपेक्षा करते हुए ये उन अभक्ष्यों में ही अधिक रुचि एवं तृप्ति का अनुभव करते हैं । कुत्ते की तरह दुम हिलाने वाले, लकड़बग्घे की तरह निष्ठुर, लोमड़ी की तरह चंचल, जोंक की तरह रक्त पिपासु, कौए की तरह चालाक, मधुमक्खियों की तरह जमाखोर, बिच्छू की तरह दुष्ट, छिपकली की तरह घिनौने कितने ही मनुष्य होते हैं । किसी का भी खेत चरने में संकोच न हो, ऐसे साँड़ कम नहीं । जिन्होंने कामुकता की उफान में लज्जा और मयार्दा को तिलांजलि दे दी, ऐसे श्वान-प्रकृति के नर-पशुओं की कमी नहीं ।
दूसरों के घोंसले मे अपने अण्डे पालने के लिए रख जाने वाली हरामखोर कोयलें कम नहीं, जो आरामतलबी के लिए अपने शिशु पोषण जैस महत्त्वपूण कत्तर्व्यों को भुलाते हुए दूसरों का मनोरंजन करने के लिए फूल वाली डालियों पर गाती-नाचती फिरती हैं । ऐसे लोभी भौंरे जो फूल के मुरझाते ही बेवफाई के साथ मुँह मोड़ लेते हैं, मनुष्य समाज में कम नहीं है । शुतुरमुर्ग की तरह अदूरदर्शी, भैंसे की तरह आलसी, खटमल और मच्छरों की तरह परपीड़क, मकड़ी और मक्खियों की तरह निरथर्क मनुष्यों की यहाँ कुछ कमी नहीं । यही प्रकृति मनुष्यों में भी रहे, तो उसका मनुष्य शरीर धारण करना निरथर्क ही नहीं, मानवता को कलंकित करने वाला ही कहा जायेगा ।
समझदार व्यक्तियों का सदा यह प्रयतन रहता है कि उनके द्वारा पाली पोसी गई सन्तान ऐसी न हो । संस्कारों की प्रतिष्ठापना बालकपन में ही होती है, इसलिए हमें अपने माता-पिता की वैसी सहायता न मिलने से मानवोचित विकास करने का अवसर भले ही न मिला हो, पर अपने बालकों के सम्बन्ध में तो वैसी भूल न की जाय, उन्हें तो सुसंस्कारी बनाया ही जाए । चूड़ाकमर्, मुण्डन-संस्कार के माध्यम से किसी बालक के सम्बन्ध में उसके सम्बन्धी परिजन, शुभचिन्तक यही योजना बनाएँ कि उसे पाशविक संस्कारों से विमुक्त एवं मानवीय आदशर्वादिता से ओत-प्रोत किस प्रकार बनाया जाए?
मुण्डन का प्रतीक कृत्य किसी देव स्थल तीथर् आदि पर इसलिए कराया जाता है कि इस सदुद्देश्य में वहाँ के दिव्य वातावरण का लाभ मिल सके । यज्ञादि धामिर्क कमर्काण्डों द्वारा इस निमित्त किये जाने वाले मानवीय पुरुषाथर् के साथ-साथ्ा सूक्ष्म सत्ता का सहयोग उभारा और प्रयुक्त किया जाता है ।
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विशेष व्यवस्था
इस संस्कार के लिए सामान्य व्यवस्था के साथ नीचे लिखे अनुसार विशेष तैयारी पर ध्यान दिया जाना चाहिए ।
(१) मस्तक लेपन के लिए यथासम्भव गाय का दूध एवं दही पचास-पचास ग्राम भी बहुत है ।
(२) कलावे के लिए लगभग छः छः इञ्च के तीन टुकड़ों के बीच में छोटे-छोटे कुश के टुकड़ों को बाँधकर रखना चाहिए ।
(३) प्रज्ञा संस्थानों शाखाओं को इस उद्देश्य के लिए कैंची, छुरा अलग से रखना चाहिए । उन्हीं का पूजन कराकर नाई से केश उतरवाना चाहिए ।
(४) बालक के लिए मुण्डन के बाद नवीन वस्त्रों की व्यवस्था रखनी चाहिए ।
(५) बाल एकत्र करने के लिए गुँथे आटे या गोबर की व्यवस्था रखनी चाहिए ।
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विशेष कमर्काण्ड बालक एवं उसके अभिभावकों का मंगलाचरण से स्वागत करते हुए क्रमबद्ध रूप से निधार्रित प्राथमिक उपचार तथा रक्षाविधान तक का क्रम पूरा कर लेना चाहिए । उसके बाद क्रमशः विशेष कमर्काण्ड कराये जाएँ ।
मस्तक लेपन
शिक्षण और प्रेरणा बालक के बालों को गौ के दूध, दही, घी में जल मिलाकर भिगोते हैं । गौ माता कल्याणकारक, परोपकारी, सरल, सौम्य प्रकृति की होती है । उसके शरीर से निकले हुए गोरस भी इसी प्रकृति के होते हैं । इन पदार्थों में वे सब गुण रहते हैं, जो गौ माता में विद्यमान् हैं । इनसे मस्तक का लेपन, बालों का भिगोना इस बात का प्रतीक है कि हमारी विचारणा, मानसिक प्रवृत्ति गौ माता जैसी गोरस जैसी स्निग्ध, सौम्य होनी चाहिए । घृत को स्नेह कहते हैं । स्नेह का दूसरा नाम प्रेम भी है । दूध, दही, घी तीनों ही स्नेहासिक्त हैं । इनसे शिरस्थ रोमकूपों का भिगोया जाना इस बात का निदेर्श करता है कि हम जो कुछ सोंचे-विचारें उसके पीछे प्रेम भावना का समुचित पुट होना चाहिए । मस्तक लेपन की क्रिया चूड़ाकर्म में इसलिए कराई जाती है कि इस आधार पर यह स्मरण रखा जा सके, कि इस बालक का मानसिक विकास रूखा, संकीणर् तथा अनैतिक, अवाँछनीय दिशा में न होने पाए । उसकी रुझान गौ जैसी-गोरस जैसी रहे । गौ अपने बछड़े को जैसे प्यार करती है, वैसे ही हम समस्त परिवार और समाज में करें ।
अपने लिए ही मरते खपते न रहें, वरन् गौ अपना रस, चर्म, अस्थि, मांस, गोबर तथा सन्तान को दूसरों के लिए उत्सगर् करती रहती है, वैसी ही रीति हमारी भी हो । रूखे सिर को इस गोरस से आर्द्र इसलिए बनाया जाता है कि उसमें सहृदयता, भावुकता, करुणा, मैत्री, प्रेम एवं उदारता की आर्द्रता बनी रहे । बालक की श्रेष्ठ प्रकृति बनाने के लिए अभिभावकों को ऐसा ही वातावरण बनाना पड़ता है । क्रिया और भावना- मन्त्र के साथ माता-पिता दूध, दही से बालक-बालिका के केश गीले करें । गर्मी की ऋतु हो, तो अच्छी तरह भी भिगो सकते हैं, अन्यथा थोड़ा-थोड़ा स्पर्श भर करके काम चलाया जा सकता है । भावना करें कि मस्तिष्क के इस दिव्योपचार प्रसंग में द्रव्यों के माध्यम से बालक के मस्तिष्क में शुभ देव-शक्तियों, देव-वृत्तियों का स्पर्श दिया जा रहा है । अशुभ के उच्छेदन तथा शुभ की स्थापना का कायर् स्नेह-प्रेम के आधार पर ही किया जाना चाहिए ।
ॐ सवित्रा प्रसूता दैव्या, आपऽउदन्तु ते तनूम् । दीघार्युत्वाय वचर्से । -पार०गृ०सू० २.१.९
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त्रिशिखा बन्धन
शिक्षण और प्रेरणा
मनुष्य का मस्तिष्क अपने आप में एक चमत्कार है । इसमें अगणित अद्भुत सामथ्यर्युक्त केन्द्र हैं । इन केन्द्रों को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है ।
१- निमार्ण परक केन्द्र- जो काया में चलने वाली निमार्ण प्रक्रिया का नियन्त्रण संचालन करते हैं ।
२- पोषण परक केन्द्र- जो काय संस्थान में चलने वाली पुष्टि, पोषण, स्वास्थ्य, आरोग्य सम्बन्धी प्रक्रियाओं के लिए उत्तरदायी हैं ।
३- नियन्त्रण परक केन्द्र- जो विकारों के निष्कासन परिवतर्न और विकास क्रम का नियन्त्रण करते हैं । क्रिया-प्रक्रिया का चक्र सँभालते हैं । यह केन्द्र क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र से सम्बद्ध माने जाते हैं । इन केन्द्रों को उनके अधिष्ठाता देवताओं की साक्षी में शोधित विकसित किया जाता है, इसलिए सिर के बालों को तीन भागों में विभक्त करके, उन्हें कुश बँधे कलावे से तीन गुच्छे में बाँधते हैं । ये हिस्से हैं-सामने एक, पीछे दायें और बाँये भाग अलग-अलग । पिछले दायें गुच्छे को ब्रह्म-ग्रन्थि, पिछले बायें गुच्छे को विष्णु ग्रन्थि तथा सामने वाले को रुद्र ग्रन्थि कहते हैं । कुश पवित्रता तथा तेजस्विता के प्रतीक होते हैं, कलावा मङ्गलकामना का प्रतीक है । मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों से अवाँछित कुसंस्कारों के उन्मूलन तथा शुभ के जागरण के लिए मंगलकामना, पवित्रता तथा तेजस्वी प्रक्रिया का त्रिवेणी योग निभाना-बिठाना कठिन होता है ।
क्रिया और भावना
एक-एक करके मन्त्रों के क्रम से निधार्रित केन्द्रों को कलावे से बाँधा जाए । तदनुरूप भावना की जाए ।
ब्रह्म ग्रन्थि बन्धन
सिर के पिछले भाग में दायीं ओर के बालों में मन्त्र के साथ कलावा बाँधे । भावना करें कि मस्तिष्क की रचना शक्ति के प्रतीक ब्रह्मा की शक्ति से देवों की साक्षी में प्रतिबद्ध किया जा रहा है । आसुरी शक्तियाँ इसका उपयोग न कर सकेंगी । यह उनका उपकरण न बन सकगा, देवत्व की मयार्दा में ही इसका विकास और संचालन होगा ।
ॐ ब्रह्मजज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेनऽआवः । स बुध्न्या ऽ उपमाऽ अस्यविष्ठाः, सतश्च योनिमसतश्च विवः । -१३.३
विष्णु ग्रन्थि बन्ध
पिछले हिस्से के बायें भाग के केशों में कलावा बाँधें, भावना करें कि मस्तिष्क के पोषण, संचालन करने वाले केन्द्र भगवान् विष्णु की शक्ति से प्रतिबद्ध हो रहे हैं । उन पर असुरत्व का शासन न चल सकेगा । देव मयार्दा से नियन्त्रित ये केन्द्र सत्प्रवृत्तियों को ही पोषण देंगे ।
ॐ इदं विष्णुविर्चक्रमे, त्रेधा निदधे पदम् । समूढमस्य पासुरे स्वाहा । -५.१५
रुद्र ग्रन्थि बन्धन
सिर के अगले भाग के केशों में मन्त्र के साथ कलावा बाँधें । भावना करें कि रुद्र-शिव की शक्ति इस क्षेत्र पर आधिपत्य कर रही है । असुरता की दाल अब नहीं गलेगी । रुद्र की शक्ति विकारों को जला डालेगी और ईश्वरीय मयार्दा के अनुकूल कल्याणकारी अनुशासन लागू करेगी ।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो त ऽइषवे नमः । बाहुभ्यामुत ते नमः । -१६.१
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छुरा पूजन
शिक्षण और प्रेरणा
जिस छुरे से नाई सिर का मुण्डन करेगा, वह इन्हीं प्रयोजनों में काम आने वाला होना चाहिए । अच्छा हो, एक बढ़िया कैंची, उस्तरा तेज धार किया हुआ, शाखा या पुरोहित अपने पास तैयार रखें और उसे ही मुण्डन संस्कारों के काम लाया करें । प्राचीन काल में प्रथम केश उतारने का कार्य पुरोहित ही करते थे । अब उन्हें यह कला नहीं आती, इसलिए क्षौर कर्म नाई से करा सकते हैं । पर छुरा ऐसा ही लिया जाए, जो सवर्साधारण के उपयोग में न आता हो ।
उपयोग के पूर्व औजार गरम पानी से तथा मिट्टी से अच्छी तरह से धो-माँज लेना चाहिए तथा सिल्ली पर घिस लेना चाहिए, उसे तश्तरी में रखकर पूजन के लिए माता-पिता के सामने रखा जाए । दोनों रोली, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप से पूजन करें और उसके मूल में कलावा बाँध दें । इस पूजन का उद्देश्य यह है कि यह छुरा साधारण लौह उपकरण मात्र न रहकर मन्त्र शक्ति-सम्पन्न होकर मस्तिष्क के कुसंस्कारों को काटकर उसमें सुसंस्कारों का प्रवेश करा सकें ।
गर्भ में आने वाले बाल सामान्य संस्कार वाले होते हैं । इस आच्छादन को उतारकर उसके स्थान पर ऐसे बाल उगने चाहिए, जो उत्कृष्ट भावनाएँ साथ लेकर ऊपर आएँ । पुराने बालों को पिछले जीवन में जमे हुए अनुपयुक्त संस्कारों का प्रतीक माना गया है । इन बालों को काटने का प्रयोजन पाशविक विचारणाओं एवं आकांक्षाओं को हटाने-मिटाने का प्रयतन करना है ।
इस उद्देश्य के लिए जिस छुरे का प्रयोग किया जा रहा है, वही पयार्प्त नहीं; क्योंकि लौह उपकरणों से कुसंस्कारों को हटाया-मिटाया जाना सम्भव नहीं है । विचार तो विचारों को काटते हैं । लोहे को लोहा काटता है । काँटे से काँटा निकलता है । विष से विष का शमन होता है, लाठी का जबाव लाठी से दिया जाता है । इसी प्रकार कुविचारों को शमन उनके विरोधी तीव्र विचारों से ही सम्भव होता है । वह छुरा प्रखर विचारों का प्रतीक प्रतिनिधि है, जो पाशविक विचारधारा को परास्त करके अपनी गहरी छाप छोड़ सके ।
छुरा पूजन का अर्थ है ऐसे उत्कृष्ट विचारों का श्रद्धापूवर्क आवाहन अभिनन्दन, जो मनोभूमि में जमे हुए असुर संस्कारों को निरथर्क झाड़-झंखाड़ों की तरह उखाड़ फेंकने में सफल हो सकें । कँटीली झाड़ियाँ कुदाल, फावड़े से ही खोदी जाती हैं । उसी प्रकार अवांछनीय विचारों तथा आदतों को उखाड़ने के लिए जीवन निमार्ण की आध्यात्मिक विचारधारा को उग्र स्तर पर विकसित करना पड़ता है । प्रारम्भिक बालों को इसी भावना के साथ काटा जाता है ।
क्रिया और भावना
थाली-तश्तरी में रखे कैंची-छुरे की पूजा मन्त्रोच्चार के साथ अभिभावक द्वारा करायी जाए । वे भावना करें कि बालक के कुविचारों को काटने के लिए, उनकी काट करने में समर्थ पैने उपकरण-सद्विचारों की अभ्यर्थना कर रहे हैं । जिस प्रकार स्थूल बालों की सफाई के लिए ये औजार प्रभु कृपा से मिलें हैं, वैसे ही सूक्ष्म प्रवाह भी मिलेंगे । उनका उपयोग पूरी तत्परता, जागरूकता से करेंगे ।
ॐ यत् क्षुरेण मज्ज्ायता सुपेशसा, वप्ता वपति केशान् । छिन्धि शिरो मास्यायुः प्रमोषीः । -पा०गृ०सू० २.१.१८
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त्रिशिखाकतर्न
शिक्षण और प्रेरणा
शिशु के मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों का ग्रन्थि बन्धन, देव-शक्तियों के आवाहन के साथ किया गया । उस नाते उन्हें उसी मयार्दा में रहने और उसी दिशा में बढ़ने की व्यवस्था बनानी होती है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बालक के कुसंस्कारों, दुष्प्रवृत्तियों को काटना-उखाड़ना पड़ता है । जंगली पौधा मनमाने ढंग से बढ़ता है, उपवन के पौधे को माली का अनुशासन मानना होता है । उसके लिए उसे जहाँ स्नेह का खाद-पानी मिलता है, वहाँ कड़ाई से काटा-छाँटा भी जाता है । यही उद्देश्य केश कर्तन के समय ध्यान में रखना चाहिए और उससे सम्बद्ध उत्तरदायित्वों के पालन की दृष्टि और व्यवस्था विकसित करनी चाहिए ।
ब्रह्म ग्रन्थि कत्तर्न का तात्पर्य यह है कि मस्तिष्क में द्वेष, दुर्भाव, ईर्ष्या आदि के आधार पर दूसरों को नीचा गिराने के लिए विध्वंसक योजना न रचने दी जाए । उस प्रकृति का उच्छेदन किया जाए । अपने विकास तथा निमार्णकारी योजनाओं के लिए स्थान सुरक्षित रखा जाए ।
विष्णु ग्रन्थि कर्तन के पीछे उद्देश्य है कि अन्तर में उठने वाली हीन आकांक्षाओं का पालन न होने दिया जाए । मस्तिष्क अपनी नहीं, प्रभु की सम्पत्ति है । अस्तु, स्वार्थपरक आकांक्षाओं के पोषण की उसे छूट नहीं, उन्हें काटा जाए । ईश्वरोन्मुख आकांक्षाओं के पोषण के लिए ही शक्ति सुरक्षित रहे ।
रुद्र ग्रन्थि कर्तन का अर्थ है ईश्वरीय मयार्दा में बढ़ने में बाधक हर प्रवृत्ति को कठोरता से काटा जाए । जो भी परिवतर्न लाये जाएँ, वे अशिव न होकर शिव ही हों । अशिव वृत्तियों को शिव की शक्ति काट फेंकें ।
क्रिया और भावना
पुरोहित स्वयं कैंची या उस्तरे से एक-एक करके मन्त्रों के उच्चारण के साथ-साथ तीनों ग्रन्थियों को क्रमशः काट दें । सभी लोग भावना प्रवाह पैदा करने में योगदान दें ।
ब्रह्म ग्रन्थि कत्तर्न के साथ-साथ भावना करें कि निमार्ण की शक्ति विनाशक प्रवृत्तियों को काट रही है । अब रचनात्मक प्रवृत्तियों के लिए यह केन्द्र सुरक्षित रहेंगे ।
ॐ येनावपत् सविता क्षुरेण, सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान् । तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य, गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान्॥ -अथवर्० ६.६८.३
विष्णु ग्रन्थि कत्तर्न के साथ भावना करें, भगवान् विष्णु की शक्ति अपने प्रतिकूल प्रवृत्तियों का उन्मूलन-निवारण कर रही है । मस्तिष्क अब अनैतिक पोषण न दे सकेगा, नीतिमत्ता में ही प्रयुक्त होगा ।
ॐ येन धाताबृहस्पतेः, अग्नेरिन्द्रस्य चायुषेऽवपत् । तेन त आयुषे वपामि, सुशोक्याय स्वस्तये । -आश्व०गृ०सू० १.१७.१२
रुद्र ग्रन्थि कत्तर्न के साथ यह भावना करें कि रुद्र त्रिपुरारि की प्रचण्ड शक्ति दुर्धर्ष, दुष्प्रवृत्तियों पर चोट कर रही है, अब उनका निवारण होगा, ताकि मस्तिष्क में दिव्य दृष्टि, दिव्यानुभूति की क्षमता विकसित हो सके ।
ॐ येन भूयश्च रात्र्यां ज्योक् च पश्याति सूयर्म् ।
तेन त ऽआयुषे वपामि, सुश्ोक्याय स्वस्तये । - आश्व०गृ०सू० १.१७.१२
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नवीन वस्त्र पूजन
शिक्षण एवं प्रेरणा
नवीन वस्त्र धारण करने का तात्पर्य है- नवीन कलेवर धारण करना । पुराना चोला उतारकर नया चोला धारण करना । जिस प्रकार सर्प पुरानी केंचुली त्यागकर नई धारण करता है, उसी प्रकार मुण्डन के अवसर पर सिर के बाल ही नहीं मुण्डाते, वरन् पुरानी केंचुली बदलते हैं, पुराने कपड़ों को उतारकर नये पहनते हैं, उन वस्त्रों में एक वस्त्र पीला भी होना चाहिए । नवीन कलेवर इस बात का प्रतीक है कि सिर के बाल उतारकर केवल पाशविक विचारों को ही नहीं हटाया गया है, वरन् शरीर पर लिपटे हुए पुराने सड़े गले जीर्ण स्वभाव एवं क्रम-प्रभाव को भी बदल दिया गया है ।
क्रिया और भावना
एक थाली में रखकर बालक के नये वस्त्रों पर अक्षत-पुष्प मन्त्रोच्चार के साथ चढ़ाये जाएँ । भावना की जाए कि जिस प्रकार अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप वस्त्र आच्छादनों की व्यवस्था करने की सामर्थ्य प्रभु ने दी है-वैसे ही अपने गौरव के अनुरूप व्यक्तित्व बनाने की सामथ्यर् भी मिल रही है । उस दिव्यता के प्रति वस्त्रों-प्रतीकोंके पूजन द्वारा अपनी आस्था व्यक्त की जा रही है ।
ॐ तस्माद् यज्ञात्सवर्हुतऽ, ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दां सि जज्ञिरे तस्माद्, यजुस्तस्मादजायत॥ -३१.७
वस्त्र पूजन के बाद अग्नि स्थापन से गायत्री मन्त्र की आहुति देने तक का क्रम पूरा करके विशेष आहुतियाँ दी जाएँ ।
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