जब शिशु के दाँत उगने लगे, मानना चाहिए कि प्रकृति ने उसे ठोस आहार, अन्नाहार करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है । स्थूल (अन्नमयकोष) के विकास के लिए तो अन्न के विज्ञान सम्मत उपयोग का ज्ञान जरूरी है यह सभी जानते हैं । सूक्ष्म विज्ञान के अनुसार अन्न के संस्कार का प्रभाव व्यक्ति के मानस पर स्वभाव पर भी पड़ता है । कहावत है जैसा खाय अन्न-वैसा बने मन । इसलिए आहार स्वास्थ्यप्रद होने के साथ पवित्र, संस्कार युक्त हो इसके लिए भी अभिभावकों, परिजनों को जागरूक करना जरूरी होता है । अन्न को व्यसन के रूप में नहीं औषधि और प्रसाद के रूप में लिया जाय, इस संकल्प के साथ अन्नप्राशन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है ।
अन्नप्राशन संस्कार
संस्कार प्रयोजन बालक को जब पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त अन्न देना प्रारम्भ किया जाता है, तो वह शुभारम्भ यज्ञीय वातावरण युक्त धर्मानुष्ठान के रूप में होता है । इसी प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है । बालक को दाँत निकल आने पर उसे पेय के अतिरिक्त खाद्य दिये जाने की पात्रता का संकेत है । तदनुसार अन्नप्राशन ६ माह की आयु के आस-पास कराया जाता है । अन्न का शरीर से गहरा सम्बन्ध है । मनुष्यों और प्राणियों का अधिकांश समय साधन-आहार व्यवस्था में जाता है । उसका उचित महत्त्व समझकर उसे सुसंस्कार युक्त बनाकर लेने का प्रयास करना उचित है । अन्नप्राशन संस्कार में भी यही होता है । अच्छे प्रारम्भ का अर्थ है- आधी सफलता ।
अस्तु, बालक के अन्नाहार के क्रम को श्रेष्ठतम संस्कारयुक्त वातावरण में करना अभीष्ट है । यर्जुवेद ४० वें अध्याया का पहला मन्त्र 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' (त्याग के साथ भोग करने) का र्निदेश करता है । हमारी परम्परा यही है कि भोजन थाली में आते ही चींटी, कुत्ता आदि का भाग उसमें से निकालकर पंचबलि करते हैं । भोजन ईश्वर को समर्पण कर या अग्नि में आहुति देकर तब खाते हैं । होली का पर्व तो इसी प्रयोजन के लिए है । नई फसल में से एक दाना भी मुख डालने से पूर्व, पहले उसकी आहुतियाँ होलिका यज्ञ में देते हैं । तब उसे खाने का अधिकार मिलता है । किसान फसल मींज-माँड़कर जब अन्नराशि तैयार कर लेता है, तो पहले उसमें से एक टोकरी भर कर धर्म कार्य के लिए अन्न निकालता है, तब घर ले जाता है । त्याग के संस्कार के साथ अन्न को प्रयोग करने की दृष्टि से ही धर्मघट-अन्नघट रखने की परिपाटी प्रचलित है । भोजन के पूर्व बलिवैश्व देव प्रक्रिया भी अन्न को यज्ञीय संस्कार देने के लिए की जाती है
विशेष व्यवस्था यज्ञ को देवपूजन आदि की व्यवस्था के साथ अन्नप्राशन के लिए लिखी व्यवस्था विशेष रूप से बनाकर रखनी चाहिए । अन्नप्राशन के लिए प्रयुक्त होने वाली कटोरी तथा चम्मच । चाटने के लिए चाँदी का उपकरण हो सके, तो अच्छा है । अलग पात्र में बनी हुई चावल या सूजी (रवा) की खीर, शहद, घी, तुलसीदल तथा गङ्गाजल- ये पाँच वस्तुएँ तैयार रखनी चाहिए ।
विशेष कर्मकाण्ड निर्धारित क्रम में मङ्गलाचरण से लेकर रक्षाविधान तक के क्रम पूरे करके विशेष कर्मकाण्ड कराया जाता है । उसमें - (१) पात्रपूजन, (२) अन्न-संस्कार, (३) विशेष आहुति तथा (४) क्षीर प्राशन सम्मिलित हैं ।
पात्र-पूजन
शिक्षण एवं प्रेरणा
पात्र, पात्रता का प्रतीक होता है । ईश्वरीय अनुदान या लौकिक सफलता अभीष्ट हो , तो पात्रता प्राप्त करनी पड़ती है, इसलिए पात्र पूजनीय है । संस्कारयुक्त आहार कुसंस्कारयुक्त पात्र में नहीं रखा जा सकता है । दवा सामान्य पात्र में नहीं रखी जा सकती, उसे यन्त्रों में स्टारलाइज, आटोक्लेप विधि से स्वच्छ बनाया जाता है ।
संस्कारयुक्त अन्न के लिए माध्यम-पात्र संस्कारयुक्त बनाने के लिए पूजन कृत्य किया जाता है । चटाने के लिए यथासम्भव चाँदी का उपकरण लेते हैं । चाँदी शुभ निर्विकारिता का प्रतीक है । जल्दी विकारग्रस्त नहीं होती । ऐसे ही माध्यमों से बालक तक आहार पहुँचना चाहिए ।
क्रिया और भावना
मन्त्रोच्चार के साथ अभिभावक पात्रों का चन्दन, रोली से स्वास्तिक बनाएँ-अक्षत पुष्प चढ़ाएँ । भावना करें कि पवित्र वातावरण के प्रभाव से पात्रों में दिव्यता की स्थापना की जा रही है, जो बालक के लिए रखे गये अन्न को दिव्यता प्रदान करेगी, उसकी रक्षा करेगी ।
ॐ हिरण्मयेन पात्रेण, सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्नपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये । ईश० उ० १५
अन्न संस्कार
शिक्षण एवं प्रेरणा
शिशु को पेय से अन्न पर लाते समय लेह्य (चाटने योग्य) खीर दी जाती है । यह पेय और खाद्य के बीच की स्थिति है । अर्थात् उसकी आयु, पाचन-क्षमता तथा आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही खाद्य का चयन किया जाना चाहिए । जब चाहे, सो खिलाते रहना ठीक नहीं । खीर के साथ मधु, घृत, तुलसीदल तथा गंगाजल मिलाते हैं । ये सभी पौष्टिक, रोगनाशक तथा पवित्र आध्यात्मिक गुण संवर्धक हैं । विशेष रूप से खीर सुपाच्य, सन्तुलित आहार, मधु-मधुरता, घी-स्नेह, तुलसी-विकारनाशक तथा गंगा जल पवित्रता का प्रतीक है । खाद्य में सभी सुसंस्कार जाग्रत् किये जाने चाहिए । पात्र में सभी वस्तुएँ मन्त्रोच्चार के साथ मिलाई जाती है ।
भोजन सिद्ध करते (पकाते, तैयार करते) समय उसमें सद्भावों, सद्विचारों और श्रेष्ठ संकल्पों का सन्निवेश कराया जाना चाहिए । अन्न-जल में भावनाओं के अधिग्रहण की पर्याप्त क्षमता होती है । इसीलिए भोजन पकाते, परोसते समय प्रसन्न मन तथा ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव रखने का विधान है । प्रयोग के लिए आवश्यकता के अनुसार मुख्य पात्र से सभी वस्तुएँ निकालते हैं । भावना यही है कि अपनी आवश्यकतानुसार ही पदार्थ लिया जाए । अधिक ले लेने से या छोड़ने से उसका तिरस्कार होगा या फिर खाने से पेट का सन्तुलन बिगड़ेगा । दोनों ही स्थितियों से बचकर सही मात्रा में प्रसाद रूप भोजन लेना और पाना चाहिए ।
क्रिया और भावना
नीचे लिखे मन्त्रों के पाठ के साथ अन्नप्राशन के लिए रखे गये पात्र में एक-एक करके भावनापूर्वक सभी वस्तुएँ डाली-मिलाई जाएँ । पात्र में खीर डालें । मात्रा इतनी लें कि ५ आहुतियाँ देने के बाद भी शिशु को चटाने के लिए कुछ बची रहे । भावना करें कि यह अन्न दिव्य संस्कारों को ग्रहण करके बालक में उन्हें स्थापित करने जा रहा है ।
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥- यजु० १८.३६
पात्र की खीर के साथ थोड़ा शहद मिलाएँ । भावना करें कि यह मधु उसे सुस्वादु बनाने के साथ-साथ उसमें मधुरता के संस्कार उत्पन्न कर रहा है । इससे शिशु के आचरण, वाणी-व्यवहार सभी में मधुरता बढ़ेगी ।
ॐ मधुवाता ऋतायते, मधुक्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः । ॐ मधु नक्तमुतोषसो, मधुमत्पार्थिव ं रजः । मधुद्यौरस्तु नः पिता । ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमाँ२ऽअस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः । -१३.२७-२९
पात्र में थोड़ा घी डालें, मन्त्र के साथ मिलाएँ । यह घी रूखापन मिटाकर स्निग्धता देगा । यह पदार्थ बालक के अन्दर शुष्कता का निवारण करके उसके जीवन में स्नेह, स्निग्धता, सरसता का संचार करेगा ।
ॐ घृतं घृतपावानः, पिबत वसां वसापावानः । पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा । दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽ, उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा॥ -६.११
पात्र में तुलसीदल के टुकडे़ मन्त्र के साथ डालें । यह औषधि शारीरिक ही नहीं, आधिदैविक, आध्यात्मिक रोगों का शमन करने में भी सक्षम है । यह अपनी तरह ईश्वर को समर्पित होने के संस्कार बालक को प्रदान करेगी ।
ॐ या ओषधीः पूर्वा जाता, देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा । मनै नु बभ्रूणामह ं, शतं धामानि सप्त च॥ - १२.७५
गंगाजल की कुछ बूँदें पात्र में डालकर मिलाएँ । पतित पावनी गङ्गा खाद्य की पापवृत्तियों का हनन करके उसमें पुण्य सम्वर्द्धन के संस्कार पैदा कर रही हैं । ऐसी भावना के साथ उसे चम्मच से मिलाकर एक दिल कर दें । जैसे यह सब भिन्न-भिन्न वस्तुएँ एक हो गयीं, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न श्रेष्ठ संस्कार बालक को एक समग्र श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करें ।
ॐ पंच नद्यः सरस्वतीम्, अपि यन्ति सस्रोतसः । सरस्वती तु पंचधा, सो देशेऽभवत्सरित्॥- ३४.११
सभी वस्तुएँ मिलाकर वह मिश्रण पूजा वेदी के सामने संस्कारित होने के लिए रख दिया जाए । इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने तक का क्रम चलाया जाए ।
विशेष आहुति
गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी हो जाने पर पहले तैयार की गयी खीर से ५ आहुतियाँ नीचे लिखे मन्त्र के साथ दी जाएँ । भावना की जाए कि वह खीर इस प्रकार यज्ञ भगवान् का प्रसाद बन रही है ।
ॐ देवीं वाचमजनयन्त देवाः, तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति । सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना, धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा । इदं वाचे इदं न मम । -ऋ० ८.१००.११
अन्नप्राशन
आहुतियाँ पूरी होने पर शेष खीर से बच्चे को अन्नप्राशन कराया जाए ।
शिक्षण और प्रेरणा- 'जैसा अन्न-वैसा मन' की उक्ति सर्वविदित है । 'आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः' का शास्त्र वचन भी विज्ञजन जानते हैं । इसीलिए अन्न को संस्कारित करके देना आवश्यक है । अन्न के रूप, रङ्ग, उसका स्वाद और गुण, धर्म भिन्न-भिन्न होते हैं । यह सब जानते हैं । यज्ञीय भावना द्वारा उसके संस्कारों का शोधन नवीनीकरण सम्भव है, इसीलिए अन्नप्राशन यज्ञावशिष्ट अन्न से कराया जाता है । यह एक संकेत मात्र है । यह क्रम सहज जीवन में भी रखा जाना चाहिए । बलिवैश्व एवं भोग लगाकर भोजन करने की परम्परा इसीलिए बनाई गयी थी ।
गीता में कहा गया है कि 'यज्ञ से बचा हुआ अन्न खाने वाला सनातन ब्रह्म की प्राप्ति करता है । ऐसा न करने वालों को तो इस जीवन में भी सद्गति नहीं मिल पाती, आगे की तो क्या कहें?' इस उक्ति का मर्म है-
अन्न वही लें, जो श्रेष्ठ संस्कारयुक्त है । बालकों के लिए सुस्वादु एवं स्वास्थ्यवर्धक आहार की तरह ही सुसंस्कारवान् अन्न जुटाने का प्रयतन करना चाहिए । यज्ञ से बचा हुआ अन्न ही खाया जाए । इस तथ्य को बालक के मुख में सर्वप्रथम अन्नग्रास देते हुए समझाया जाता है । अपनी कमाई में से प्रथम सामाजिक उत्कर्ष की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए ।
सर्वप्रथम अपनी कमाई का उपयोग अपने से भी अधिक पिछड़े हुए दुःखी, दिग्भ्रान्त लोगों को प्रकाश पहुँचाने के लिए होना चाहिए । फालतू पैसा या समय बचे, तब कुछ शुभ कार्य के लिए दिया जा सकता है, ऐसा सोचना धर्म के विरुद्ध है । मानवता का अर्थ यह है कि प्राथमिकता लोकमंगल को मिलनी चाहिए । दान करना किसी पर अहसान करना नहीं है, वरन् धर्म की- 'ऐक्साइज ड्यूटी' है । उत्पादनकर चुकाये बिना जिस तरह माल फैक्टरी से बाहर नहीं निकल सकता, उसी तरह लोकमंगल के लिए अपना आवश्यक योगदान दिये बिना शरीर, मन और धन अशुद्ध एवं अनुपयुक्त ही बने रहते हैं । इस प्रकार का अनुपयुक्त उपयोग अवांछनीय एवं धर्म विरुद्ध ही ठहराया गया है । कानून में इसके लिए दण्ड भले ही न हो, पर ईश्वरीय व्यवस्था में वह दण्डनीय है ।
खीर खिलाने में इस तथ्य की ओर प्रत्येक अभिभावक का ध्यान आकर्षित किया जाता है कि वे अधिक मात्रा व अनुपयुक्त भोजन के खतरे को समझें और बच्चे को कुछ भी खिलाते समय इस सम्बन्ध में पूरी-पूरी सतर्कता बरतें । भोजन देने, कराने का उत्तरदायित्व कुछ ही व्यक्तियों पर रहना चाहिए । हर कोई जो चीज जब चाहे मुँह में न ठूँस दें, इसकी रोकथाम करना बालक की जीवन-रक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इसके लिए सारे घर का वातारण ही बदलना पड़ेगा । मिर्च-मसाले खाकर, चाय-कॉफी पीकर बच्चे अपनी आँतों को तथा रक्त को खराब न करें । यदि यह अभीष्ट हो, तो बच्चे के आहार में से नहीं, सारे घर के आहार में से इस प्रकार की अनुपयुक्त वस्तुओं को हटाना पड़ेगा । अन्यथा आगे-पीछे देखा-देखी उन सब चीजों को बच्चे सीख ही जायेंगे, घर में जिस प्रकार का वातावरण बना हुआ है, दूसरे लोग जिन आदतों से ग्रसित हैं, उनसे बालकों को बचाया नहीं जा सकता ।
क्रिया और भावना
खीर का थोड़ा-सा अंश चम्मच से मन्त्र के साथ बालक को चटा दिया जाए । भावना की जाए कि वह यज्ञावशिष्ट खीर अमृतोपम गुणयुक्त है और बालक के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन, वैचारिक उत्कृष्टता तथा चारित्रिक प्रामाणिकता का पथ प्रशस्त करेगी ।
ॐ अन्नपतेऽन्नस्य नो, देह्यनमीवस्य शुष्मिणः । प्रप्रदातारं तारिषऽऊर्जं, नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे । - ११.८३
इसके बाद स्विष्टकृत् होम से लेकर विसर्जन तक के कर्म पूरे किये जाएँ । विसर्जन के पूर्व बालक को सभी लोग आशीर्वाद दें ।
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