Friday, January 20, 2012

हमारी संस्कार परंपरा

हमारी महान् आध्यात्मिक विरासत सफल और सार्थक यात्रा के लिए जहाँ यात्रा के भारतीय संस�?कृति ने जीवन के हर क�?षेत�?..." target="_blank">काम आने वाले उपकरण-अटैची, बिस्तर, पानी पीने के बर्तन आदि आवश्यक होते हैं, वही यह जानना भी, कि यात्रा किस उद्देश्य से की जा रही है? रास्ता क्या है? मार्ग में कहाँ-किस तरह की भौगोलिक समस्याएँ आयेंगी तथा किन लोगों को मार्गदर्शन उपयोग रहेगा? इन जानकारियों के अभाव में सुविधा-सम्पन्न यात्रा तो दूर अनेक अवरोध और संकट उठ खड़े हो सकते हैं । मनुष्य का जीवन भी विराट यात्रा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है । उसमें मात्र सुख-सुविधा संवर्धन तक ही सीमित रह जाने वाले मार्ग में भटकते दुःख भोगते और पश्चात्ताप की आग में जलते हुए संसार से विदा होते हैं ।

हमारे पूर्वजों ने इस आध्यात्मिक सत्य को बहुत गहराई तक पहचाना, और जीवन की गहन समीक्षा की । उन्होंने पाया कि माँ के पेट में आने से लेकर चिता में समर्पण होने तक, उसके भी बाद मरणोत्तर विराम तक अनेक महत्वपूर्ण मोड़ आते है, यदि उनमें जीवात्मा को सम्हाला और सँवारा न जाये, तो मनुष्य अपनी अस्मिता का अर्थ समझना तो दूर, पीड़ा और पतन की ओर निरंतर अग्रसर होता हुआ नरकीटक, नरवानर, नरपामर बनता चला जाता है । इन महत्वपूर्ण मोड़ों पर सजग-सावधान करने और उँगली पकड़कर सही रास्ता दिखाने के लिए हमारे तत्वेत्ता, मनीषियों ने षोडश संस्कारों का प्रचलन किया था । चिन्ह-पूजा के रूप में प्रचलन तो उनका अभी भी है पर वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक बोध और प्रशिक्षण के अभाव वे मात्र कर्मकाण्ड और फिजूलखर्ची बनकर रह गये हैं ।

कुछ संस्कार तो धात�? शब�?द की निर�?क�?ति धारणाद�? धातवः-..." target="_blank">रस के कुपित हो जाने पर उसके विष बन जाने की तरह उलटी कुत्सा भड़काने का माध्यम बन गये हैं । विशेष रूप स विवाहों में तो आज यही हो रहा है । यों मनुष्य माटी का खिलौना है । पाश्चात्य सभ्यता तो उसे 'सोशल एनीमल' अर्थात् 'सामाजिक पशु' तक स्वीकार करने में संकोच नहीं करती, पर जिस जीवन को जीन्स और क्रोमोंजोम समुच्चय के रूप में वैज्ञानिकों ने भी अजर-अमर और विराट् यात्रा के रूप में स्वीकार कर लिया हो, उसे उपेक्षा और उपहास में टालना किसी भी तरह की समझदारी नहीं है । कम से कम जीवन ऐसा तो हो, जिसे गरिमापूर्ण कहा जा सके । जिससे लोग प्रसन्न हों, जिसे लोग याद करें, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा लें, ऐसे व्यक्तित्व जो जन्म-जात संस्कार और प्रतिभा-सम्पन्न हों, उँगलियों में गिनने लायक होते हैं । अधिकांश तो अपने जन्मदाताओं पर वे अच्छे या बुरे जैसे भी हों, उन पर निर्भर करते हैं, वे चाहे उन्हें शिक्षा दें, संस्कार दें, मार्गदर्शन दें, या फिर उपेक्षा के गर्त में झोंक दें, पीड़ा और पतन में कराहने दें ।

प्राचीनकाल में यह महान दायित्व कुटुम्बियों के साथ-साथ संत, पुरोहित और परिव्राजकों को सौंपा गया था । वे आने वाली पीढ़ियों को सोलह-सोलह अग्नि पुटों से गुजार कर खरे सोने जैसे व्यक्तित्व में ढालते थे । इस परम्परा का नाम ही संस्कार परम्परा है । जिस तरह अभ्रक, लोहा, सोना, पारस जैसी सर्वथा विषैली धातुएँ शोधने के बाद अमृत तुल्य औषधियाँ बन जाती हैं, उसी तरह किसी समय इस देश में मानवेतर योनियों में से घूमकर आई हेय स्तर की आत्माओं को भी संस्कारों की भट्ठी में तपाकर प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्तित्व के रूप में ढाल दिया जाता था । यह क्रम लाखों वर्ष चलता रहा उसी के फलस्वरूप यह देश 'स्वर्गादप गरीयसी' बना रहा, आज संस्कारों को प्रचलन समाप्त हो गया, तो पथ भूले बनजारे की तरह हमारी पीढ़ियाँ कितना भटक गयीं और भटकती जा रही हैं, यह सबके सामने है । आज के समय में जो व्यावहारिक नहीं है या नहीं जिनकी उपयोगिता नहीं रही, उन्हें छोड़ दें, तो शेष सभी संस्कार अपनी वैज्ञानिक महत्ता से सारे समाज को नई दिशा दे सकते हैं । इस दृष्टि से इन्हें क्रांतिधर्मी अभियान बनाने की आवश्यकता है ।

भारत को पुनः एक महान राष्ट्र बनना है, विश्व गुरु का स्थान प्राप्त करना है । उसके लिए जिन श्रेष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता बड़ी संख्या में पड़ती है, उनके विकसित करने के लिए यह संस्कार प्रक्रिया अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है । । प्रत्येक विचारशील एवं भावनाशील को इससे जुड़ना चाहिए । शांतिकुंज, गायत्री तपोभूमि मथुरा सहित तमाम गायत्री शक्तिपीठों , गायत्री चेतना केन्द्रों, प्रज्ञापीठों, प्रज्ञा केन्द्रों में इसकी व्यवस्था बनाई गई है । हर वर्ग में युग पुरोहित विकसित किए जा रहे हैं । आशा की जाती है कि विज्ञजन, श्रद्धालुजन इसका लाभ उठाने एवं जन-जन तक पहुँचाने में पूरी तत्परता बरतेंगे ।

युग गायत�?री के समग�?र विनियोग में सविता दे�..." target="_blank">ऋषि (वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य) ने युग की तमाम समस्याओं का अध्ययन किया और उनके समयोचित समाधान भी निकाले । इसी क्रम में उन्होंने संस्कार प्रक्रिया के पुनर्जीवन का भी अभियान चलाया । उन्होंने संस्कारों को विवेक एवं विज्ञान सम्मत स्वरूप दिया, उनके साथ प्रखर लोक शिक्षण जोड़ा, कर्मकाण्डों को सर्व सुलभ, प्रभावी और कम खर्चीला बनाया । युग निर्माण के अन्तर्गत उनके सफल प्रयोग बड़े पैमाने पर किए गए । इसके लिए उन्होंने प्रचलित संस्कारों में से वर्तमान समय के अनुकूल केवल बारह संस्कार ( पुंसवन , बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण , चूड़ाकर्म ( मुण्डन, शिखास्थापन )- अन्नप्राशन , विद्यारम्भ , यज्ञोपवीत ( दीक्षा ) , सद�?गृहस�?थ की, परिवार निर�?माण की जिम�?म�..." target="_blank">विवाह , वानप्रस्थ , अन्येष्टि , मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) , जन्मदिवस एंव जैसे जीवन का प�?रांरभ जन�?म से होता है, व�..." target="_blank">विवाहदिवस ) पर्याप्त माने हैं । इन संस्कारों को उपयुक्त समय पर उपयुक्त वातावरण में सम्पन्न करने-कराने के असाधारण लाभ लोगों ने पाए हैं । उनके विवरण निम्नानुसार हैं

पुंसवन संस्कार---
संस्कार परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मन से, मन के द�?वारा">मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें । गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय । उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाय । गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाय, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है । वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए ।

व्याख्या

गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए गर्भिणी का यह संस्कार किया जाता है । कहना न होगा कि बालक को संस्कारवान् बनाने के लिए सर्वप्रथम जन्मदाता माता-पिता को सुसंस्कारी होना चाहिए । उन्हें बालकों के प्रजनन तक ही दक्ष नहीं रहना चाहिए, वरन् सन्तान को सुयोग्य बनाने योग्य ज्ञान तथा अनुभव भी एकत्रित कर लेना चाहिए । जिस प्रकार मोटर चलाने से पूर्व उसके कल-पुर्जों की आवश्यक जानकारी प्राप्त कर ली जाती है, उसी प्रकार गृहस्थ जीवन आरम्भ करने से पूर्व इस सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी इकट्ठी कर लेनी चाहिए ।
अच्छा होता अन्य विषयों की तरह शिक्षा व्यवस्था में दाम्पत्य जीवन एवं शिशु निर्माण के सम्बन्ध में शास्त्रीय प्रशिक्षण दिये जाने की व्यवस्था रही होती । इस महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति संस्कारों के शिक्षणात्मक पक्ष से भली प्रकार पूरी हो जाती है । यों तो षोडश संस्कारों में सर्वप्रथम गर्भाधान संस्कार का विधान है, जिसका अर्थ यह है कि दम्पती अपनी प्रजनन प्रवृत्ति से समाज को सूचित करते हैं । विचारशील लोग यदि उन्हें इसके लिए अनुपयुक्त समझें, तो मना भी कर सकते हैं । प्रजनन वैयक्तिक मनोरंजन नहीं, वरन् सामाजिक उत्तरदायित्व है । इसलिए समाज के विचारशील लोगों को निमंत्रित कर उनकी सहमति लेनी पड़ती है । यही गर्भाधान संस्कार है । पूर्वकाल में यही सब होता था ।
आज लोगों के शरीर खोखले हो गये और सन्तानोत्पत्ति को भी वैयक्तिक मनोरंजन मान लिया, तो फिर गर्भाधान संस्कार का महत्त्व चला गया । इतने पर भी उसकी मूल भावना को भुलाया न जाए, उस परम्परा को किसी न किसी रूप में जीवित रहना चाहिए । पति-पत्नी एकान्त मिलन के साथ वासनात्मक मनोभाव न रखें, मन ही मन आदर्शवादी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहें, तो उसकी मन से, मन के द�?वारा">मानसिक छाप बच्चे की मनोभूमि पर अङ्कित होगी । लुक-छिपकर पाप कर्म करते हुए भयभीत और आशंकाग्रसित अनैतिक समागम-व्यभिचार के फलस्वरूप जन्मे बालक अपना दोष-र्दुगुण साथ लाते हैं । इसी प्रकार उस समय दोनों की मनोभूमि यदि आदर्शवादी मान्यताओं से भरी हुई हो, तो मदालसा, अर्जुन आदि की तरह मनचाहे स्तर के बालक उत्पन्न किये जा सकते हैं ।
गर्भाधान संस्कार का प्रयोजन यही है । वस्तुतः वह प्रजनन-विज्ञान का आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्थिति का मार्गदर्शन कराने वाला प्रशिक्षण ही था । आज संस्कारों का जबकि एक प्रकार से लोप ही हो गया है, गर्भाधान का प्रचलन कठिन पड़ता है, इसलिए उसे आज व्यावहारिक न देखकर उस पर विशेष जोर नहीं दिया गया है, फिर भी उसकी मूल भावना यथावत् है । सन्तान उत्पादन से पूर्व उर्पयुक्त तथ्यों पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए ।




संस्कार प्रयोजन

गर्भ सुनिश्चित हो जाने पर तीन माह पूरे हो जाने तक पुंसवन संस्कार कर देना चाहिए । विलम्ब से भी किया तो दोष नहीं, किन्तु समय पर कर देने का लाभ विशेष होता है । तीसरे माह से गर्भ में आकार और संस्कार दोनों अपना स्वरूप पकड़ने लगते हैं । अस्तु, उनके लिए आध्यात्मिक उपचार समय पर ही कर दिया जाना चाहिए । इस संस्कार के नीचे लिखे प्रयोजनों को ध्यान में रखा जाए । गर्भ का महत्त्व समझें, वह विकासशील शिशु, माता-पिता, कुल परिवार तथा समाज के लिए विडम्बना न बने, सौभाग्य और गौरव का कारण बने । गर्भस्थ शिशु के शारीरिक, बौद्धिक तथा भावनात्मक विकास के लिए क्या किया जाना चाहिए, इन बातों को समझा-समझाया जाए । गर्भिणी के लिए अनुकूल वातावरण खान-पान, आचार-विचार आदि का निर्धारण किया जाए । गर्भ के माध्यम से अवतरित होने वाले जीव के पहले वाले कुसंस्कारों के निवारण तथा सुसंस्कारों के विकास के लिए, नये सुसंस्कारों की स्थापना के लिए अपने सङ्कल्प, पुरुषार्थ एवं देव अनुग्रह के संयोग का प्रयास किया जाए ।

विशेष व्यवस्था

() औषिधि अवघ्राण के लिए वट वृक्ष की जटाओं के मुलायम सिरों का छोटा टुकड़ा, गिलोय, पीपल की कोपल-मुलायम पत्ते लाकर रखे जाएँ । सबका थोड़ा-थोड़ा अंश पानी के साथ सिल पर पीसकर एक कटोरी में उसका घोल तैयार रखा जाए ।
‍(
) साबूदाने या चावल की खीर तैयार रखी जाए । जहाँ तक सम्भव हो सके, इसके लिए गाय का दूध प्रयोग करें । खीर गाढ़ी हो । तैयार हो जाने पर निर्धारित क्रम में मङ्गलाचरण, षट्कर्म, सङ्कल्प, यज्ञोपवीत परिवर्तन, कलावा-तिलक एवं रक्षाविधान तक का यज्ञीय क्रम पूरा करके नीचे लिखे क्रम से पुंसवन संस्कार के विशेष कर्मकाण्ड कराएँ ।




औषधि अवघ्राण

वट वृक्ष, विशालता और दृढ़ता का प्रतीक है । धीरे-धीरे बढ़ना धैर्य का सूचक है । इसकी जटाएँ भी जड़ और तने बन जाती हैं, यह विकास-विस्तार के साथ पुष्टि की व्यवस्था है, वृद्धावस्था को युवावस्था में बदलने का प्रयास है । गिलोय में वृक्ष के ऊपर चढ़ने की प्रवृत्ति है । यह हानिकारक कीटाणुओं की नाशक है, शरीर में रोगाणुओं, अन्तःकरण के कुविचार-दुर्भावों, परिवार और समाज में व्याप्त दुष्टता-मूढ़ता आदि के निवारण की प्रेरणा देती है । शरीर को पुष्ट कर, प्राण ऊर्जा की अभिवृद्धि कर सत्प्रवृत्तियों के पोषण की सार्मथ्य पैदा करती है । पीपल देवयोनि का वृक्ष माना जाता है । देवत्व के परमार्थ के संस्कार इसमें सन्निहित हैं । उनका वरण, धारण और विकास किया जाए । सूँघने और पान करने का तात्पर्य श्रेष्ठ संस्कारों का वरण करने, उन्हें आत्मसात् करने की व्यवस्था बनाना है । आहार तथा दिनचर्या का निर्धारण ऐसा किया जाए जिससे महापुरुषों के अध्ययन, श्रवण, चिन्तन द्वारा गर्भिणी अपने में, अपने गर्भ में श्रेष्ठ संस्कार पहुँचाए । इस कार्य में परिजन उसका सहयोग करें ।

क्रिया भावना
औषधि की कटोरी गर्भिणी के हाथ में दी जाए । वह दोनों हाथों में उसे पकड़े । मन्त्र बोला जाए, गर्भिणी नासिका के पास औषधि को ले जाकर धीरे-धीरे श्वास के साथ उसकी गन्ध धारण करे । भावना की जाए कि औषधियों के श्रेष्ठ गुण और संस्कार खींजे जा रहे हैं । वेद मन्त्रों तथा दिव्य वातावरण द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति में सहयोग मिल रहा है ।
ॐ अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च, विश्वकर्मणः समर्वत्तताग्रे । तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति, तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥ -३१.१७




गर्भ पूजन

शिक्षण एवं प्रेरणा
गर्भ कौतुक नहीं, एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है । उसे समझा जाए और उस जिम्मेदारी को उठाने की तैयारी मन से, मन के द�?वारा">मानसिक तथा व्यावहारिक क्षेत्र में की जाए । गर्भ के माध्यम से जो जीव प्रकट होना चाहता है, उसे ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर उसके लिए समुचित व्यवस्था बनाकर, उसके स्वागत की तैयारी करनी चाहिए । गर्भ पूज्य है । कोई पूज्य व्यक्ति सामने हो, तो अपने स्वभाव तथा परस्पर के द्वेष-वैर को भुलाकर भी शालीनता का वातावरण बनाया जाता है । गर्भ के लिए भी ऐसा ही किया जाए । गर्भ का पूजन केवल एक सामयिकता औपचारिकता न रह जाए । संस्कारित करने के लिए पूजा उपासना का सतत प्रयोग चले । घर में आस्तिकता का वातावरण रहे । गर्भिणी स्वयं भी नियमित उपासना करे । उसे आहार और विश्राम जितना ही महत्त्वपूर्ण मानकर चलाया जाए । अधिक न बने, तो गायत्री चालीसा पाठ एवं पंचाक्षरी मन्त्र 'ॐ र्भूभुवः स्वः' का जप ही कर लिया करे ।

क्रिया और भावना
गर्भ पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ । मन्त्र बोला जाए । मन्त्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए । वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे । भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है । गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहँुचाने में सहयोग कर रही है ।
ॐ सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो, गायत्रं चक्षुबरृहद्रथन्तरे पक्षौ । स्तोमऽआत्मा छन्दा स्यङ्गानि यजूषि नाम । साम ते तनूर्वामदेव्यं, यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वःपत॥ -१२.




आश्वास्तना

शिक्षण एवं प्रेरणा
गर्भ के माध्यम से प्रकट होने वाले जीव को अपेक्षा होती है कि उसे विकास के लिए सही वातावरण मिलेगा । जिस सत्ता ने गर्भ प्रदान किया है, वह भी उस उत्तरदायित्व को पूरा होते देखना चाहती है । दोनों को आश्वस्त किया जाना चाहिए कि उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा ।
पहला आश्वासन गर्भिणी दे । वह अपने र्कत्तव्य का ध्यान रखे । आहार-विहार, चिन्तन सही रखे । दूसरों के व्यवहार और वातावरण की शिकायत करने में समय और शक्ति न गँवाकर, धैर्यपूर्वक गर्भ को श्रेष्ठ संस्कार देने का प्रयास करे । प्रसन्न रहे, ईष्र्या, द्वेष, क्रोध आदि मनोविकारों से बचती रहे । धैर्यपूर्वक उज्ज्वल भविष्य की कामना करे ।
दूसरा आश्वासन उसके पति और परिजनों की ओर से होता है । गर्भिणी माता अपने शरीर तथा रक्त-मांस से बालक का शरीर बनाती है, अपना रक्त सफेद दूध के रूप में निकाल-निकाल कर बच्चे का पोषण करती है, उसके मल-मूत्र, स्नान, वस्त्र तथा दिनचर्या की हर घड़ी साज-सॅभाल रखती है । इतना भार तथा त्याग कुछ कम नहीं । माता इतना करके भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी का बहुत बड़ा भाग पूरा कर लेती है ।
अब शिशु को सुसंस्कारी बनाने की उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न करना, पिता का भारतीय संस�?कृति ने जीवन के हर क�?षेत�?..." target="_blank">काम रह जाता है । उसे पूरा करने के लिए उतना ही त्याग करना, उतना ही कष्ट सहना और उतना ही ध्यान रखना, पिता का और परिजनों का भी र्कत्तव्य है । सब मिलकर प्रयास करें कि गर्भ पर अभाव और कुसंस्कारों की छाया न पड़ने पाए । गर्भिणी गलत आकांक्षाएँ पास न आने दे । परिजन उसकी उचित आकांक्षाएँ जानें और पूरी करें । क्या खाना चाहती है? यही पूछना पर्याप्त नहीं, कैसा व्यवहार चाहती है? यह भी पूछा जाय, समझा जाए और पूरा किया जाए ।

क्रिया और भावना
गर्भिणी अपना दाहिना हाथ पेट पर रखे । पति सहित परिवार के सभी परिजन अपना हाथ गर्भिणी की तरफ आश्वासन की मुद्रा में उठाएँ । मन्त्र पाठ तक वही स्थिति रहे । भावना की जाए कि गर्भिणी गर्भस्थ शिशु तथा दैवी सत्ता को आश्वस्त कर रही है । सभी परिजन उसके इस प्रयास में भरपूर सहयोग देने की शपथ ले रहे हैं । इस शुभ संकल्प में दैवी शक्तियाँ सहयोग दे रही है । इस श्रेष्ठ संकल्प-पूर्ति की क्षमता दे रही हैं ।
ॐ यत्ते ससीमे हृदये हितमन्तः प्रजापतौ । मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं, माहं पौत्रमघन्नियाम्॥ - आश्व०गृ०सू०
.१३ आश्वास्तना के बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने का क्रम चलाएँ । उसके बाद विशेष आहुतियाँ प्रदान करें ।




विशेष आहुति

शिक्षण एवं प्रेरणा
यज्ञीय जीवन भारतीय संस्कृति की विशेष उपलब्धि है । जीवन का हर चरण एक आहुति है । कृत्य विशेष को यज्ञमय बनाने के लिए विशेष क्रम बनाने होते हैं । विशेष आहुति उसी बोध को जीवन्त बनाती है । यज्ञ में पोषक, सात्त्विक पदार्थ खीर की आहुति डाली जाती है । इसी प्रकार अंतःकरण में दूध की तरह श्वेत, कलुषरहित भावों का संचार करें । दूध में घी समाया रहता है, अपने चिन्तन एवं आचरण में स्नेह समाया रहे । गर्भिणी स्वयं भी तथा परिवार के परिजन मिलकर गर्भस्थ शिशु के लिए ऐसा ही परमार्थपरक वातावरण बनाएँ ।

क्रिया और भावना
गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ हो जाने के बाद खीर की पाँच आहुतियाँ विशेष मन्त्र से की जाएँ । भावना की जाय कि दिव्य मन्त्र शक्ति के संयोग से गर्भस्थ शिशु और सभी परिजनों के लिए अभीष्ट मंगलमय वातावरण बन रहा है ।
ॐ धातादधातु दाशुषे, प्राचीं जीवातुमक्षिताम् । वयं देवस्य धीमहि, सुमतिं वाजिनीवतः स्वाहा । इदं धात्रे इदं न मम॥ -आश्व०गृ०सू० १.१४




चरु प्रदान

शिक्षण एवं प्रेरणा
यज्ञ से बची खीर गर्भिणी को सेवन के लिए दी जाती है । यज्ञ से संस्कारित अन्न ही मन में देवत्व की वृत्तियाँ पैदा करता है । स्वार्थ वृत्ति से स्वाद को लक्ष्य करके तैयार किया गया भोजन अकल्याणकारी होता है । आहार प्रभु का प्रसाद बनाकर लिया जाए । बिना भोग लगाये न खाना, संयम की वृत्ति को पैदा करता है, पुष्ट करता है । नित्य का आहार भी यज्ञीय संस्कार युक्त हो, इसके लिए घर में बलिवैश्व परम्परा डाली जानी चाहिए । गर्भिणी विशेष रूप से नित्य बलिवैश्व करके, यज्ञ का प्रसाद बनाकर ही भोजन ले । भोजन में सात्विक पदार्थ हों । उत्तेजक, पेट और वृत्तियों को खराब करने वाले पदार्थ न हों । उन्हीं में धात�? शब�?द की निर�?क�?ति धारणाद�? धातवः-..." target="_blank">रस लिया जाए ।

क्रिया और भावन
विशेष आहुतियों के बाद शेष बची खीर प्रसाद रूप में एक कटोरी में गर्भिणी को दी जाए । वह उसे लेकर मस्तक से लगाकर रख ले । सारा कृत्य पूरा होने पर पहले उसी का सेवन करे । भावना करे कि यह यज्ञ का प्रसाद दिव्य शक्ति सम्पन्न है । इसके प्रभाव से राम-भरत जैसे नर पैदा होते हैं । ऐसे संयोग की कामना की जा रही है ।
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधिषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् । -यजु० १८.३६




आशीर्वचन

सारा कृत्य पूरा हो जाने पर विसर्जन के पूर्व आशीर्वाद दिया जाए । आचार्य गर्भिणी को शुभ मन्त्र बोलते हुए फल-फूल आदि दें । गर्भिणी साड़ी के आँचल में ले । अन्य बुजुर्ग भी आशीर्वाद दे सकते हैं । सभी लोग पुष्प वृष्टि करें । गर्भिणी एवं उसका पति बड़ों के चरण स्पर्श करें, सबको नमस्कार करें ।

विसर्जन और जयघोष करके आयोजन समाप्त किया जाए ।

. नामकरण संस्कार

बालक का नाम उसकी पहचान के लिए नहीं रखा जाता । मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है । नाम सोच-समझकर तो रखा ही जाय, उसके साथ नाम रोशन करने वाले गुणों के विकास के प्रति जागरूक रहा जाय, यह जरूरी है । बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण संस्कार में इस उद्देश्य का बोध कराने वाले श्रेष्ठ सूत्र समाहित रहते हैं ।


व्याख्या

संस्कार प्रयोजन
नामकरण शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है । यों तो जन्म के तुरन्त बाद ही जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यवहार में नहीं दीखता । अपनी पद्धति में उसके तत्त्व को भी बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है । इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहँुचाने का सत्प्रयास किया जाता है । जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो हीन हों, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना-अभीष्ट होता है । बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुरूप वातावरण बनाना चाहिए । शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए । भारतीय संस्कृति में कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है । शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है । 'दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता ।' इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है । 'जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं ।' इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए । यह संस्कार कराते समय शिशु के अभिभावकों और उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है । भाव भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है । आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है । उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है । यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए । शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं । उसी के साथ यज्ञ एवं संस्कार का क्रम वातावरण में दिव्यता घोलकर अभिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करता है । यदि दसवें दिन किसी कारण बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण संस्कार न किया जा सके । तो अन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए । घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है ।




विशेष व्यवस्था


यज्ञ पूजन की सामान्य व्यवस्था के साथ ही बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण संस्कार के लिए विशेष रूप से इन व्यवस्थाओं पर ध्यान देना चाहिए ।
- यदि दसवें दिन बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण घर में ही कराया जा रहा है, तो वहाँ सयम पर स्वच्छता का कार्य पूरा कर लिया जाए तथा शिशु एवं माता को समय पर संस्कार के लिए तैयार कराया जाए ।
- अभिषेक के लिए कलश-पल्लव युक्त हो तथा कलश के कण्ठ में कलावा बाँध हो, रोली से ॐ, स्वस्तिक आदि शुभ चिह्न बने हों ।
- शिशु की कमर में बाँधने के लिए मेखला सूती या रेशमी धागे की बनी होती है । न हो, तो कलावा के सूत्र की बना लेनी चाहिए ।
- मधु प्राशन के लिए शहद तथा चटाने के लिए चाँदी की चम्मच । वह न हो, तो चाँदी की सलाई या अँगूठी अथवा स्टील की चम्मच आदि का प्रयोग किया जा सकता है ।
- संस्कार के समय जहाँ माता शिशु को लेकर बैठे, वहीं वेदी के पास थोड़ा सा स्थान स्वच्छ करके, उस पर स्वस्तिक चिह्न बना दिया जाए । इसी स्थान पर बालक को भूमि स्पर्श कराया जाए ।
- नाम घोषणा के लिए थाली, सुन्दर तख्ती आदि हो । उस पर निर्धारित नाम पहले से सुन्दर ढङ्ग से लिखा रहे । चन्दन रोली से लिखकर, उस पर चावल तथा फूल की पंखुड़ियाँ चिपकाकर, साबूदाने हलके पकाकर, उनमें रङ्ग मिलाकर, उन्हें अक्षरों के आकार में चिपकाकर, स्लेट या तख्ती पर रङ्ग-बिरङ्गी खड़िया के रङ्गों से नाम लिखे जा सकते हैं । थाली, ट्रे या तख्ती को फूलों से सजाकर उस पर एक स्वच्छ वस्त्र ढककर रखा जाए । नाम घोषणा के समय उसका अनावरण किया जाए ।
- विशेष आहुति के लिए खीर, मिष्टान्न या मेवा जिसे हवन सामग्री में मिलाकर आहुतियाँ दी जा सकें ।
- शिशु को माँ की गोद में रहने दिया जाए । पति उसके बायीं ओर बैठे । यदि शिशु सो रहा हो या शान्त रहता है, तो माँ की गोद में प्रारम्भ से ही रहने दिया जाए । अन्यथा कोई अन्य उसे सम्भाले, केवल विशेष कर्मकाण्ड के समय उसे वहाँ लाया जाए । निर्धारित क्रम से मङ्गलाचरण, षट्कर्म, संकल्प, यज्ञोपवीत परिवर्तन, कलावा, तिलक एवं रक्षा-विधान तक का क्रम पूरा करके विशेष कर्मकाण्ड प्रारम्भ किया जाए ।



अभिषेक

शिक्षण एवं प्रेरणा
बालक तो अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ मानव शरीर में आया है, इसलिए उसके मन पर पाशविक संस्कारों की छाया रहनी स्वाभाविक है । इसको हटाया जाना आवश्यक है । यदि पशु प्रवृत्ति बनी रही, तो मनुष्य शरीर की विशेषता ही क्या रही है । जिनके अन्तःकरण में मानवीय आदर्शो के प्रति निष्ठा, भावना है, उन्हीं को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है । इन्दि्रय-परायणता, स्वार्थपरता, निरुद्देश्यता, भविष्य के बारे में सोचना, असंयम जैसे दोषों को पशुवृत्ति कहते हैं । इसका जिनमें बाहुल्य हैं, वे नरपशु है । अपना नवजात शिशु नर-पशु नहीं रहना चाहिए, उसके चिर संचित कुसंस्कारों को दूर किया ही जाना चाहिए । इस परिशोधन के लिए संस्कार मण्डप में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम बालक का अभिषेक किया जाता है ।

क्रिया और भावना
सिंचन के लिए तैयार कलश में मुख्य कलश का थोड़ा-सा जल या गंगाजल मिलाएँ । मन्त्र के साथ बालक का संस्कार कराने वालों तथा उपकरणों पर सिंचन किया जाए । भावना करें कि जो जीवात्मा शिशु के रूप में ईश्वर प्रदत्त सुअवसर का लाभ लेने अवतरित हुई है, उसका अभिनन्दन किया जा रहा है । ईश्वरीय योजना के अनुरूप शिशु में उत्तरदायित्वों के निर्वाह की क्षमता पैदा करने के लिए श्रेष्ठ संस्कारों तथा सत् शक्तियों के स्रोत से, उस पर अनुदानों की वृष्टि हो रही है । उपस्थित सभी परिजन अपनी भावनात्मक संगति से उस प्रक्रिया को अधिक प्राणवान् बना रहे हैं ।
ॐ आपो हिष्ठा मयोभुवः ता नऽऊर्जे दधातन
, महे रणाय चक्षसे ।
ॐ यो वः शिवतमो रसः
, तस्य भाजयतेह र�?भूभ�?वः स�?वः तत�?सवित�?र�?वरेण�?य�..." target="_blank">नः । उशतीरिव मातरः ।
ॐ तस्माऽअरंगमामवो
, यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जन यथा च नः॥ - ३६.१४-१६



मेखला बन्धन

शिक्षण और प्रेरणा
संस्कार के लिए तैयार मेखला शिशु की कमर में बाँधी जाती है । इसे कहीं-कहीं कौंधनी, करधनी, छूटा आदि भी कहा जाता है । यह कटिबद्ध रहने का प्रतीक है । फौजी जवान, पुलिस के सिपाही कमर में पेटी बाँधकर अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं । शरीर सुविधा की दृष्टि से उसकी अनुपयोगिता भी हो सकती है; पर भावना की दृष्टि से कमर में बँधी हुई पेटी, चुस्ती, मुस्तैदी, निरालस्यता, स्फूर्ति, तैयारी एवं र्कत्तव्य-पालन के लिए तत्परता का प्रतिनिधित्व करती है । यह गुण मनुष्य का प्रारंभिक गुण है । यदि इसमें कमी रहे, तो उसे गयी-गुजरी, दीन-हीन स्थिति में पड़े रहकर अविकसित जीवन व्यतीत करना पड़ेगा । आलसी, प्रमादी व्यक्ति अपनी प्रतिभा एवं क्षमता को यों ही बर्बाद करते रहते हैं । ढीला-पोला स्वभाव आदमी को कहीं का नहीं रहने देता, उसके सब भारतीय संस�?कृति ने जीवन के हर क�?षेत�?..." target="_blank">काम अधूरे और अस्त-व्यस्त रहते हैं, फलस्वरूप कोई आशाजनक सत्परिणाम भी नहीं मिल पाता । इस दोष को बीजांकुर बच्चे में जमने न पाए, इसकी सावधानी रखने के लिए जागरूकता एवं तत्परता का प्रतिनिधित्व करने के उद्देश्य से बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण संस्कार के अवसर पर कमर में मेखला बाँध दी जाती है । अभिभावक जब-जब इस मेखला को देखें, तब-तब यह स्मरण कर लिया करें कि बच्चे को आलस्य प्रमाद के दोष-र्दुगुण से बचाये रखने के लिए उन्हें प्राण-पण से प्रयतन करना है । जैसे-जैसे बच्चा समझदार होता चले, वैसे-वैसे उसके स्वभाव में मुस्तैदी,श्रमशीलता एवं भारतीय संस�?कृति ने जीवन के हर क�?षेत�?..." target="_blank">काम में मनोयोगपूर्वक जुटने का गुण बढ़ाते चलना चाहिए । इस सम्बन्ध में जो हानि-लाभ हो सकते हैं, उन्हें भी समय-समय पर बताते-सिखाते, समझाते रहना चाहिए ।

क्रिया और भावना
मन्त्र के साथ शिशु के पिता उसकी कमर में मेखला बाँधें । भावना करें कि इस संस्कारित सूत्र के साथ बालक में तत्परता, जागरूकता, संयमशीलता जैसी सत्प्रवृत्तियों की स्थापना की जा रही है ।
ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना, वर्णं पवित्रं पुनतीमऽआगात् । प्राणापानाभ्यां बलमादधाना, स्वसादेवी सुभगा मेखलेयम् । -पार०गृ०सू० २..



मधु प्राशन

शिक्षण और प्रेरणा
इसमें बालक को निर्धारित उपकरण से शहद चटाया जाता है । शहद चटाने में मधुर भाषण की शिक्षा का समावेश है । सज्जनता की पहचान किसी व्यक्ति की वाणी से ही होती है । शालीनता की परख मधुर, नम्र, प्रिय, शिष्टता से भरी हुई वाणी को सुनकर ही की जा सकती है । इसी गुण के आधार पर दूसरों का स्नेह, सद्भाव एवं सहयोग प्राप्त होता है । वशीकरण मन्त्र मधुर भाषण ही होता है । कोयल की प्रशंसा और कौए की निन्दा उनका रंग रूप एकसा होने पर वाणी सम्बन्धी अन्तर के कारण ही होती है । चाँदी-रजत सफेद, शुभ्र होती है । उसे पवित्रता -निर्विकारिता का प्रतीक माना जाता है । पवित्रता, निर्विकारिता के आधार पर वाणी में मधुरता हो, स्वार्थी-धूर्तों जैसी न हो, इसलिए चाँदी का प्रतीक प्रयुक्त होता है ।

क्रिया और भावना
मन्त्रोच्चार के साथ थोड़ा-सा शहद निर्धारित उपकरण से बालक को चटाया जाए । घर के किसी बुजुर्ग या उपस्थित समुदाय में से किन्हीं चरित्र निष्ठ संभ्रान्त व्यक्ति द्वारा भी यह कार्य कराया जा सकता है । भावना की जाए कि सभी उपस्थित परिजनों के भाव संयोग से बालक की जिह्वा में शुभ, प्रिय, हितकरी, कल्याणप्रद वाणी के संस्कार स्थापित किये जा रहे हैं ।
ॐ प्रते ददामि मधुनो घृतस्य, वेदं सवित्रा प्रसूतं मघोनाम् । आयुष्मान् गुप्तो देवताभिः, शतं जीव शरदो लोके अस्मिन् । - आश्व०गृ०सू० १.१५.



सूर्य नमस्कार

शिक्षण एवं प्रेरणा
सूर्य गतिशीलता, तेजस्विता प्रकाश एवं ऊष्णता का प्रतीक है । उसकी किरणें इस संसार में जीवन संचार करती है । बालक में भी इन गुणों का विकास होना चाहिए । सूर्य निरन्तर चलता रहता है, उसे विश्राम का अवकाश नहीं, अपने र्कत्तव्य से एक क्षण के लिए भी विमुख नहीं होता । न बहुत जल्दबाजी, उतावली करता है और न थककर शिथिलता, उदासीनता, उपेक्षा बरतता है । जो र्कत्तव्य निर्धारित कर लिया, उस पर पूर्ण दृढ़ता एवं समस्वरता के साथ चलता रहता है । मनुष्य की क्रिया पद्धति भी यही होनी चाहिए । जो पक्ष चुन लिया, जो कार्यक्रम अपना लिया, उसमें न तो शिथिलता बरतनी चाहिए और न ही अधीर होकर उतावली, जल्दी करनी चाहिए । धैर्य,स्थिरता और दृढ़ निश्चय के साथ निरन्तर आगे चलते रहना है । सूर्यदर्शन के साथ बालक को यह प्रेरण दी जाती है कि उसे भावी जीवन में आलसी, ढीला-पोला या अनियमित नहीं बनना है । नियमितता, लगन, परिश्रम के द्वारा ही वह कुछ कर सकेगा, इसलिए सूर्य को वह देखे और उसकी रीति-नीति का अनुसरण करे । अभिभावक शिशु के मन-मस्तिष्क के पूर्ण विकास के लिए उत्तम प्रेरणाएँ एवं साधन प्रदान करते रहें ।

क्रिया और भावना
यदि सूर्य को देखने की स्थिति हो, तो माता शिशु को बाहर ले जाकर सूर्य दर्शन कराए । सूर्य देव को नमस्कार करें । किसी कारण संस्कार के समय सूर्य दृश्यमान न हो, तो उनका ध्यान करके नमस्कार करें । भावना की जाए कि माँ अपने स्नेह के प्रभाव से बालक में तेजस्विता के प्रति आकर्षण पैदा कर रही है, बालक में तेजस्वी जीवन के प्रति सहज अनुराग पैदा हो रहा है । इसे सब मिलकर स्थिर रखेंगे, बढ़ाते रहेंगे ।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् । पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शत , शृणुयाम शरदः शतं, प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात् । -३६.२४



भूमि पूजन-स्पर्शन

शिक्षण और प्रेरणा
बालक को सूतक के दिनों में जमीन पर नहीं बिठाते । बालक का नाम उसकी पहचान के लि�? नहीं रखा �..." target="_blank">नामकरण के बाद उसे भूमि पर बिठाते हैं, इससे पूर्व धरती का पूजन किया जाता है । प्रथम बार उस सम्पूजित भूमि पर बालक को बिठाते हैं । भूमि को लीपकर चौक पूरते हैं और उसका अक्षत, पुष्प, गन्ध, धूप आदि से पूजन करते हैं । भूमि को केवल मिट्टी ही न मानकर उसे देवभूमि, जन्मभूमि, धरती माता, भारतमाता मानकर सदैव उसके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति का परिचय देना चाहिए । विश्व-माता, प्राणि-माता, भारत-माता, धरती-माता का वही सम्मान होना चाहिए, जो शरीर को जन्म देने वाली माता का होता है । अपनी सगी माता की तरह मातृभूमि की सेवा के लिए भी मनुष्य के मन में भावनाएँ रहनी चाहिए । मातृभूमि, विश्व वसुधा की रक्षा औरर सेवा के लिए जिससे त्याग एवं प्रयतन बन सके, करना चाहिए । देशभक्ति से मतलब समाज सेवा से ही है । देशवासी, साथी और सहयोगियों की सुविधा के लिए कुछ कार्य करना चाहिए । अपना पेट पालने, अपनी ही उन्नति और सुविधा चाहने की प्रवृत्ति ओछे लोगों में पाई जाती है । श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी आन्तरिक महानता के अनुरूप घर तक ही अपनी ममता सीमित नहीं रखते, वरन् उसे व्यापक बनाते हैं । सुदूरवर्ती व्यक्ति भी अपने ही बन्धुबान्धव प्रतीत होते हैं और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की निष्ठा जम जाती है । ऐसे देशभक्त व्यक्ति समाज सेवा एवं लोकमंगल के कार्यों को अपने निजी लाभ एवं स्वार्थ से भी बढ़कर मानते हैं, इन्हीं की यशोगाथा इस संसार को सुरक्षित करती रहती है । भूमि स्पर्श करते हुए बालक को मातृभूमि की सेवा देशभक्ति की भावनाएँ जाग्रत् करने की शिक्षा दी जाती है । धरती माता की क्षमाशीलता प्रसिद्ध है । वह सबका भार अपने ऊपर उठाती है, अपनी छाती में अन्न, फल, रस, खनिज आदि विविध-विध पदार्थ उपजाकर प्राणियों का पालन करती है । लोग मल-मूत्र आदि से उसे गन्दा करते हैं, तो भी रुष्ट नहीं होती और वह सब सहन करती है । अपना अधिकांश भाग जल की शीतलता से भरे रहती है । विशाल सम्पदा की स्वामिनी होने पर इतराती नहीं, पुरुषार्थियों को उदारतापूर्वक अपनी सम्पत्ति का उपहार देती है । अपनी सभी सन्तानों को गोदी में लेकर अपनी निश्चित रीति-नीति के अनुसार गतिशील रहती है । भीतरी अग्नि को भीतर ही छिपी रहने देती है और बाहर से ठण्डी ही रहती है । भूमि में से पौधे आहार खींचते और बढ़ते हैं, परन्तु माली उनकी बाढ़ को सही दिशा देने के लिए उनकी साज-सँभाल के साथ-साथ काट-छाँट भी करता है । मातृभूमि के अनुदानों से बालक के विकास में भी माली जैसी सावधानी अभिभावकों को बरतनी चाहिए ।

क्रिया और भावना
शिशु के माता-पिता हाथ में रोली, अक्षत, पुष्प आदि लेकर मन्त्र के साथ भूमि का पूजन करें । भावना की जाए कि धरती माता से इस क्षेत्र में बालक के हित के लिए श्रेष्ठ संस्कारों को घनीभूत करने की प्रार्थना की जा रही है । अपने आवाहन-पूजन से उस पुण्य-प्रक्रिया को गति दी जा रही है । मन्त्र पूरा होने पर पूजन सामग्री पर चढ़ाई जाए ।
ॐ मही द्यौः पृथिवी च न ऽ, इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतां नो भरीमभिः । ॐ पृथिव्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि ।

स्पर्श क्रिया और भावना
माता बालक को मन्त्रोच्चार के साथ उस पूजित भूमि पर लिटा दे । सभी लोग हाथ जोड़कर भावना करें कि जैसे माँ अपनी गोद में बालक को अपने स्नेह-पुलकन के साथ जाने-अनजाने में श्रेष्ठ प्रवृत्ति और गहरा सन्तोष देती रहती है, वैसे ही माता वसुन्धरा इस बालक को अपना लाल मानकर गोद में लेकर धन्य बना रही है ।
ॐ स्योना पृथिवी नो, भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा र�?भूभ�?वः स�?वः तत�?सवित�?र�?वरेण�?य�..." target="_blank">नः शर्म सप्रथाः । अप र�?भूभ�?वः स�?वः तत�?सवित�?र�?वरेण�?य�..." target="_blank">नः शोशुचदघम् । - ३५.२१



नाम घोषणा

शिक्षण एवं प्रेरणा
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य को जिस तरह के नाम से पुकारा जाता है, उसे उसी प्रकार की छोटी सी अनुभूति होती रहती है । यदि किसी को कूड़ेमल, घूरेमल, नकछिद्दा, नत्थो, घसीटा आदि नामों से पुकारा जायेगा, तो उसमें हीनता के भाव ही जायेंगे । नाम सार्थक बनाने की कई हलकी, अभिलाषाएँ मन में जगती रहती है । पुकारने वाले भी किसी के नाम के अनुरूप उसके व्यक्तित्व की हल्की या भारी कल्पना करते हैं । इसलिए नाम का अपना महत्त्व है । उसे सुन्दर ही चुना और रखा जाए ।
बालक का नाम रखते समय निम्न बातों का ध्यान रखें ।
(
)गुणवाचक नाम रखे जाएँ, जैसे- सुन्दरलाल, सत्यप्रकाश, धर्मवीर, मृत्युंजय, विजयकुमार, तेजसिंह, शूरसिंह, विद्याभूषण, ज्ञानप्रकाश, विद्याराम आदि । इसी प्रकार बालिकाओं के नाम-दया, क्षमा, प्रभा, करुणा, प्रेमवती, सुशीला, माया, शान्ति, सत्यवती, प्रतिभा, विद्या आदि ।
(
) महापुरुषों एवं देवताओं के नाम भी बच्चों के नाम रखे जा सकते हैं । जैसे-रामअवतार, कृष्णचन्द्र, शिवकुमार, गणेश, सवितानन्दन, विष्णुप्रसाद, लक्ष्मण, भरत, याज्ञवल्क्य, पाराशर, सुभाष, रवीन्द्र, बुद्ध, महावीर, हरिश्चन्द्र, दधीच्ा आदि । लड़कियों के नाम- कौशल्या, सुमित्रा, देवकी, पार्वती, दमयन्ती, पद्मावती, लक्ष्मी, कमला, सरस्वती, सावित्री, गायत्री, मदालसा, सीता, उर्मिला, अनसूया आदि ।
(
) प्राकृतिक विभूतियों के नाम पर भी बच्चों के नाम रखे जा सकते हैं । जैसे- रजनीकान्त, अरुणकुमार, रतनाकर, हिमाचल, घनश्याम, वसन्त, हेमन्त, कमल, गुलाब, चन्दन, पराग आदि । लड़कियों के नाम-उषा, रजनी, सरिता, मधु, गङ्गा, यमुना, त्रिवेणी, वसुन्धरा, सुषमा आदि । लड़की और लड़कों के नामों की एक बड़ी लिस्ट बनाई जा सकती है । उसी में से छाँटकर लड़के और लड़कियों के उत्साहवर्धक, सौम्य एवं प्रेरणाप्रद नाम रखने चाहिए । समय-समय पर बालकों को यह बोध भी कराते रहना चाहिए कि उनका यह नाम है, इसलिए गुण भी अपने में वैसे ही पैदा करने चाहिए ।

क्रिया और भावन
मन्त्रोच्चार के साथ नाम से सज्जित थाली या तख्ती पर से वस्त्र हटाया जाए । सबको दिखाया जाए । यह कार्य आचार्य या कोई सम्माननीय व्यक्ति करें । भावना की जाए कि यह घोषित नाम ऐसे व्यक्तित्व का प्रतीक बनेगा, जो सबका गौरव बढ़ाने वाला होगा ।
ॐ मेधां ते देवः सविता, मेधां देवी सरस्वती । मेधां ते अश्विनौ देवौ, आधत्तां पुष्करस्रजौ॥ -आश्व०गृ० १.१५.
मन्त्र पूरा होने पर सबको नाम दिखाएँ और तीन नारे लगवाएँ
(
प्रमुख कहें)(सब कहें)
. शिशु .............चिरंजीवी हो । (तीन बार कहें ।)
. शिशु .............धर्मशील हो । (तीन बार कहें ।)
. शिशु .............प्रगतिशील हो । (तीन बार कहें)




परस्पर परिवर्तन

शिक्षण और प्रेरण
माता अपने रक्त-मांस से उदरस्थ बालक के शरीर का निर्माण करती है । अपना श्वेत रक्त-दूध पिलाकर उसका पालन करती है, इसलिए इस उत्पादन में उसका श्रेय अधिक है । बालक माता के समीप ही अधिक रहता है, इसलिए उसके क्रिया-कलापों एवं भावनाओं से प्रेरणा भी अधिक लेता है, यह बात ठीक है, पर साथ ही यह भी निश्चित है कि अकेली माता उसका सर्वाङ्गीण विकास कर सकने में समर्थ नहीं हो सकती । आहार, चिकित्सा, खेल, शिक्षा, संस्कार आदि का बहुत कुछ उत्तरदायित्व परिवार के अन्य लोगों पर भी समान रूप से है । इस परिवर्तन की क्रिया द्वारा घर के सभी लोग क्रमशः बालक को अपनी गोदी में लेते हैं और यह उत्तरदायित्व अनुभव करते हैं कि बालक के स्वस्थ विकास में सभी शक्ति पर योगदान करेंगे । वेशक माता के बाद अधिक उत्तरदायित्व पिता पर आता है, पर घर के अन्य सदस्य भी उससे मुक्त नहीं रह सकते । साझे की खेती की तरह बालकों के निर्माण में घर के सब लोगों का समान योगदान रहना चाहिए ।

क्रिया और भावना
मन्त्रोच्चारण प्रारम्भ के साथ माता बालक को पहले उसके पिता की गोद में दे । पिता अन्य परिजनों को दे । शिशु एक-दूसरे के हाथ में जाता स्नेह-दुलार पाता हुआ पुनः माँ के पास पहुँच जाए । भावना की जाए कि बालक सबका स्नेह पात्र बन रहा है, सबके स्नेह-अनुदानों का अधिकार पा रहा है ।
ॐ अथ सुमङ्गल नामानह्वयति, बहुकार श्रेयस्कर भूयस्करेति । यऽएव वन्नामा भवति, कल्याण मेवैतन्मानुष्यै वाचो वदति॥



लोक दर्शन

शिक्षण और प्रेरणा
कोई वयोवृद्ध व्यक्ति बच्चे को गोदी में लेकर घर से बाहर ले जाते हैं और उसे बाहर का खुला संसार, खुला वातावरण दिखाते हैं । बालक घर में ही कूपमण्डूक न बना रहे, वरन् वह जगती के विस्तृत प्राङ्गण में भी अपने को गतिशील बनाए, प्रकृति की गोद में रहे, विशाल वातावरण में बढ़े, इसके लिए बाहर खुले वातावरण में उसे घुमाया जाता है । विनोद, क्रीड़ा एवं ज्ञान संवर्धन द्वारा सर्वाङ्गीण विकास का द्वार खोला जाता है । यह संसार विराट् ब्रह्म है । इसे प्रत्यक्ष परमेश्वर समझना चाहिए । भगवान् श्रीराम ने कौशल्या और काकभुशुण्डि को एवं भगवान् श्रीकृष्ण ने यशोदा तथा अर्जुन को विराट् रूप दिखाते हुए विश्व ब्रह्माण्ड का ही साक्षात्कार कराया था, जो इस जगत् को ईश्वर की विशाल शक्ति के रूप में देखने लगा, समझना चाहिए कि उसने ईश्वर का दर्शन कर लिया ।

क्रिया और भावना
मन्त्रोच्चारण के साथ नियुक्त व्यक्ति उसे गोद में उठायें-खुले में जाकर विभिन्न दृश्य दिखाकर ले आएँ । भावना की जाए कि बालक में इस विराट् विश्व को सही दृष्टि से देखने, समझने एवं प्रयुक्त करने की क्षमता देव अनुग्रह और सद्भावना के सहयोग से प्राप्त हो रही है ।
ॐ हिरण्यगर्भः समर्वत्तताग्रे, भूतस्य जातः परितेकऽआसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां, कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ -१३.
इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने का क्रम चलाया जाए, तब विशेष आहुतियाँ दी जाएँ ।



विशेष आहुति

क्रिया और भावना
हवन सामग्री के साथ निर्धारित मेवा-मिष्टान्न खीर आदि मिलाकर पाँच आहुतियाँ नीचे लिखे मन्त्र दी जाएँ । भावना की जाए कि विशेष उद्देश्य के लिए विशेष वातावरण का निर्माण हो रहा है ।
ॐ भूर्भुव: स्वः । अग्निरृषि पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः । तमीमहे महागयं स्वाहा । इदम् अग्नये पवमानाय इदं न मम॥ -ऋ०९.६६.२०


बाल प्रबोधन

शिक्षण और प्रेरणा
शिशु के विकास के लिए जितना आवश्यक स्नेह-दुलार है, उतना ही आवश्यक है, उसे समयानुकूल उद्बोधन देना । यह नहीं सोचना चाहिए कि बालक क्या समझता है? यह बड़ी भ्रान्ति है । समझने-समझाने के लिए भाषा भी एक माध्यम है; पर वही सब कुछ नहीं, स्नेह-स्पन्दनों और विचार-तरंगों के सहारे मनुष्य अधिक गहराई से समझता है । भाषा भी उसी को स्पष्ट करती है । बालक भाषा न भी समझे, तो भी मूल स्पन्दनों के प्रति बहुत संवेदनशील होता है । अपने मनोरंजन या खीझ की प्रतिक्रिया स्वरूप उसके साथ फूहड़ वार्तालाप नहीं करना चाहिए, उसे सम्बोधन करके प्रबोधन देने का शुभारम्भ इस संस्कार के समय किया जाता हैं, जिसे विचारशीलों, हितैषियों द्वारा आगे भी चलाते रहना चाहिए ।

क्रिया और भावना आचार्य बालक को गोद में लें । उसके कान के पास नीचे वाला मन्त्र बोलें । सभी लोग भावना करें कि भाव-भाषा को शिशु हृदयंगम कर रहा है और श्रेष्ठ सार्थक जीवन की दृष्टि प्राप्त कर रहा है ।
ॐ शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसारमाया परिवर्जितोऽसि । संसारमायां त्यज मोहनिद्रां, त्वां सद्गुरुः शिक्षयतीति सूत्रम्॥
प्रबोधन के बाद पूर्णाहुति आदि शेष कृत्य पूरे किये जाएँ । विसर्जन के पूर्व आचार्य, शिशु एवं अभिभावकों को पुष्प, अक्षत, तिलक सहित आशीर्वाद दें, फिर सभी मंगल मन्त्रों के साथ अक्षत, पुष्प वृष्टि करके आशीर्वाद दें ।

आशीर्वचन
आचार्य बालक-अभिभावक को आश्शीर्वाद दें । नीचे लिखे मन्त्र के अतिरिक्त आश्शीर्वचन के अन्य मन्त्रों का पाठ भी करना चाहिए ।
हे बालक! त्वमायुष्मान् वर्चस्वी, तेजस्वी श्रीमान् भूयाः ।

गायत्री परिवार की वेबसाइट से साभार

No comments:

Post a Comment