Friday, August 31, 2012

परशुराम मंदिर में वार्षिक अष्टयाम सम्पन्न




हैदराबाद, 16 अगस्त। शहर के जगदगिरीगुट्टा स्थित भगवान परशुराम के मंदिर में वार्षिक अष्टयाम का समापन सामूहिक हवन और भंडारे के साथ हुआ। ब्रह्मर्षि सेवा समाज के इस आयोजन में बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं ने भाग लिया।
ब्रह्मर्षि सेवा समाज, हैदराबाद के अध्यक्ष रामगोपाल चौधरी ने यहां जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि भगवान परशुराम के मंदिर में बिगत वर्षों की भांति इस साल भी पूरे श्रद्धा और उत्साह के साथ पूर्ण विधि-विधान से 24 घंटे का अखंड हरिनाम संकीर्तन का आयोजन किया गया। 24 घंटे तक चले अखंड हरिनाम संकीर्तन के दौरान हजारों श्रद्धालुओं ने पूर्ण भक्ति-भाव और तन्मयता से धार्मिक अनुष्ठानों में अपनी सहभागिता निभाई। समापन के दिन आयोजित विशाल भंडारे में समाज के अग्रजनों के साथ ही जगदगिरी गुट्टा के स्थानीय नागरिकों ने तन- मन- धन से सहभागिता निभाई । अध्यक्ष श्री चौधरी ने अष्टयाम को सफलता पूर्वक पूर्ण होने पर सभी का आभार जताया। उन्होंने धर्मानुरागी सज्जन शक्ति से अपील की कि शहर के पहले और एकलौते परशुराम मंदिर को अद्वितीय स्वरुप देने के कार्य में अपनी सहभागिता निभाकर आपार यश का भागी बनें। मंदिर प्रबंधन से जुड़े वरीय सदस्यों सर्वश्री श्यामनंदन सिंह , रामगोपाल चौधरी, आई पी सिंह , शत्रुध्न प्रसाद सिंह , आर. एस. शर्मा, हेमंत सिंह, ब्रजेश सिंह, ललन कुमार, अशोक शर्मा आदि ने समस्त धार्मिक प्रवृतियों को सम्पन्न कराने में महती भूमिका निभाई।


Wednesday, February 22, 2012

स्वामी सहजानंद सरस्वती की जयंती मनी













हैदराबाद, 20 फरवरी। भारतीय किसान आंदोलन के प्रणेता स्वामी सहजानंद सरस्वती की जयंती धूमधाम से शहर के जगतगिरीगुट्टा स्थित परशुराम मंदिर में मनायी गयी। इस मौके पर स्वामी सहजानंद के कार्यो और जीवन संघर्ष की व्यापक रुप में चर्चा हुई। ब्रह्मर्षि सेवा समाज की ओर से आयोजित समारोह के मुख्य अतिथि थे स्वामी के सहयोगी रहे जीवछ सिंह। ब्रह्मर्षि सेवा संघ, हैदराबाद के अध्यक्ष रामगोपाल चौधरी की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक समारोह का उद्घाटन समाज के वरिष्ठ सदस्यों सर्वश्री रामजी मिश्रा, सी के सिन्हा, रामगोपाल चौधरी नॆ दीप जलाकर किया। अपने संबोधन में मुख्य अतिथि जीवछ सिंह ने बेगूसराय में स्वामी सहजानंद की नाव कोठी के जमींदार के खिलाफ हुई रैली की चर्चा की। जिसमें स्वामीजी ने इलाके के खेतिहर किसानों और मजदूरों से जमींदार के लठैतों को लाठी से खदेड़ना का आह्वान किया था। उन्होंने सुनाया कि उस जमाने के राहुल सांस्कृत्यायन,राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण जैसे सभी बड़े नेता स्वामीजी के आंदोलनों में भागीदार होते थे। हैदराबाद में पहली बार आयोजित समारोह से उत्साहित अध्यक्ष रामगोपाल चौधरी ने घोषणा की कि अब स्वामीजी की जयंती और पुण्यतिथि हर साल बड़े पैमाने पर आयोजित की जाएगी। अतिथियों का स्वागत समाज के अध्यक्ष रामगोपाल चौधरी ने किया जबकी संचालन पुखराज ने किया। इस मौके पर रामजी मिश्रा, सीके सिन्हा,एस एन राय, मनोज शाही, आर एस शर्मा, मानवेन्द्र मिश्रा, मीनाक्षी चौधरी, महिला सेल की प्रमुख आशा मिश्रा,उषा शर्मा,कुसुम लता राय,ब्रजेश कुमार, बीएन राय, पुष्कर कुमार सहित कई लोग मौजूद थे।



Wednesday, January 25, 2012

हमारे संस्कार- विवाह दिवस संस्कार


जैसे जीवन का प्रांरभ जन्म से होता है, वैसे ही परिवार का प्रारंभ विवाह से होता है । श्रेष्ठ परिवार और उस माध्यम से श्रेष्ठ समाज बनाने का शुभ प्रयोग विवाह संस्कार से प्रारंभ होता है । दो शरीर मिलकर एक प्राण होने की साधना इसी दिन से प्रारंभ करते हैं । इसलिए विवाह दिवसोत्सव को भी एक श्रेष्ठ पर्व मानकर उस दिन युग ऋषि द्वारा निर्धारित संस्कार का लाभ लेना चाहिए ।

व्याख्या

जिनके विवाह नहीं हुए उनके संस्कार को सुयोग्य व्यवस्थापकों एवं पुरोहितों द्वारा अत्यन्त प्रभावोत्पादक बनाया जाना चाहिए, पर जिनके हो चुके हैं, उनके सम्बन्ध में 'हो गया सो हो गया' कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता, उनको यह लाभ पुनः मिलना चाहिए । औंधे-सीधे ढंग से बेगार भुगतने की भगदड़ में उन्हें जो मिल नहीं पाया है, इसके लिए उत्तम-सरल और उपयोगी तरीका विवाह दिवसोत्सव मनाया जाना ही हो सकता है । जिस दिन विवाह हुआ था, हर वर्ष उस दिन एक छोटा उत्सव, समारोह मनाया जाए । मित्र परिजन एकत्रित हों, विवाह का पूरा कर्मकाण्ड तो नहीं, पर उनमें प्रयुक्त होने वाली प्रमुख क्रियाएँ पुनः की जाएँ तथा विवाह के र्कत्तव्य-उत्तरदायित्वों को नये सिरे से पुनः समझाया जाए ।

हर वर्ष इस प्रकार का व्रत धारण, प्रशिक्षण, संकल्प एवं धर्मानुष्ठान किया जाता रहे, तो उससे दोनों को अपने र्कत्तव्य एवं उत्तरदायित्वों को पालने-निबाहने की निश्चय ही अधिक प्रेरणा मिलेगी । उसी दिन दोनों परस्पर विचार-विनिमय करके अपनी-अपनी भूलों को सुधारने तथा एक दूसरे के अधिक समीप आने के उपाय सुझाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं । विवाह दिन की पुरानी आनन्दमयी स्मृति का स्मरण कर पुनः अन्तःकरण को प्रफुल्लित कर सकते हैं । इस प्रकार वह सुनहरा दिन एक दिन के लिए हर साल नस-नाड़ियों में उल्लास भरने के लिए आ सकता है और विवाह र्कत्तव्यों को नये सिरे से निबाहने की प्रेरणा दे सकता है ।
बन्दूकों के लाइसेन्स हर साल बदलने पड़ते हैं, रेडियो का लाइन्सेस हर वर्ष नया मिलता है । मोटरों के लाइसेन्स का भी हर साल नवीनीकरण करना पड़ता है । विवाह के र्कत्तव्यों को ठीक तरह पालने का लेखा-जोखा उपस्थित करने, भूल-चूक को सुधारने और अगले वर्ष सावधानी बरतने के विवाह लाइसेन्स का यदि हर वर्ष नवीनीकरण कराया जाए, तो इससे कुछ हानि नहीं, हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है । संसार के अन्य देशों में यह उत्सव सर्वत्र मनाये जाते हैं । अन्तर इतना ही है कि वे केवल खुशी बढ़ाने के मनोरंजन तक ही उसे सीमित रखते हैं, हमें उसे धर्म प्रेरणा से ओत-प्रोत करने वाले धर्मानुष्ठान की तरह नियोजित करना है ।

संकोच-अनावश्यक- इस प्रथा के प्रचलन में एक बड़ी कठिनाई यह है कि हमारे देश में विवाह को, दाम्पत्य जीवन को झिझक-संकोच एवं लज्जा का विषय माना जाने लगा है, उसे लोग छिपाते हैं । दूसरों को देखकर स्त्रियाँ अपने पतियों से घूँघट काढ़ लेती हैं और पति अपनी पत्नी की तरफ से आँखें नीची कर लेते हैं । विवाह के अवसर पर वधू बड़े संकोच के साथ डरती-झिझकती कदम उठाकर आती है, यह अनावश्यक संकोचशीलता निरथर्क है । भाई-भाइयों की तरह पति-पतनी भी दो साथी हैं । विवाह न तो चोरी है, न पाप । दो व्यक्तियों का धमर्पूवर्क द्वैत को अद्वैत में परिणत करने का व्रत-बन्ध ही विवाह अथवा दाम्पत्य संबंध है । अवश्य ही अश्लील चेष्टाएँ अथवा भाव भंगिमाएँ खुले रूप से निषिद्ध मानी जानी चाहिए, पर साथ-साथ बैठने-उठने, बात करने की मानवोचित रीति-नीति में अनावश्यक संकोच न बरता जाए, इसमें न तो कोई समझदारी है, न कोई तुक । इस बेतुकी को यदि हटा दिया जाए, तो इससे मयार्दा का तनिक भी उल्लंघन नहीं होता ।
जब अनेक अवसरों पर पति-पत्नी पास-पास बैठ सकते हैं, कोई हवन आदि धमर्कृत्य कर सकते हैं, साथ-साथ तीर्थयात्रा आदि कर सकते हैं, तो विवाह दिवसोत्सव पर किये जाने वाले साधारण से हवन में किसी को क्यों संकोच होना चाहिए । गायत्री हवन के साथ-साथ चार-पाँच छोटे-छोटे अन्य (विवाह दिवसोत्सव के) विधि-विधान जुडे हुए हैं और प्रवचनों का विषय दाम्पत्य जीवन होता है । इनके अतिरिक्त और कुछ भी बात तो ऐसी नहीं है, जिसके लिए झिझक एवं संकोच किया जाए, विवाह की चर्चा करने पर जैसे वर-वधू सकुचाते हैं, वैसी ही कुछ झिझक विवाह दिवसोत्सव के अवसर पर दिखाई जाती है । इसमें औचित्य तनिक भी नहीं, विचारशील लोगों के लिए इस अकारण की संकोचशीलता को छोड़ने में कुछ अधिक कठिनाई नहीं होनी चाहिए ।

अनेक प्रगतिशीलता दम्पती अपने विवाह दिवस मनाते हैं । कोई दिशा धारा न होने से, छुट्टी, पिननिक, मित्रों की पार्टी, सिनेमा जैसे छुटपुट उपचारों तक ही सीमित रह जाते हैं, ऐसे लोगों को भावनात्मक-धर्म समारोहपूवर्क विवाह दिवसोत्सव मनाने की बात बतलाई-समझाई जाए, तो वे इसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं । न्यूनतम खर्च में जीवन में नई दिशा का बोध कराने वाला तथा नये उल्लास का संचार कराने वाला यह संस्कार थोड़े ही प्रयास से लोकप्रिय बनाया जा सकता है ।

नया उल्लास नया आरम्भ- पति-पत्नी को नये वर्ष में नये उल्लास एवं नये आनन्द से परिपूर्ण जीवन बनाने-बिताने की नई प्रेरणा के साथ अपना नया कायर्क्रम बनाना चाहिए । अब तक वैवाहिक जीवन अस्त-व्यस्त रहा हो, तो रहा हो, पर अब अगले वर्ष के लिए यह प्रेरणा लेनी चाहिए । ऐसी योजना बनानी चाहिए कि वह अधिकाधिक उत्कृष्ट एवं आनन्ददायक हो । उस दिन को अधिक मनोरंजक बनाने के लिए छुट्टी के दिन के रूप में मनोरंजक कायर्क्रम के साथ बिताने की व्यवस्था बन सके, तो वैसा भी करना चाहिए । विवाह दिन को केवल कमर्काण्ड की दृष्टि से ही नहीं, भावना-उल्लास और उत्साह की दृष्टि से भी विवाह दिन की अभिव्यक्तियों को नवीनीकरण के रूप में मना सकें, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए ।

यह तथ्य ध्यान में रखें- गृहस्थ एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें डिक्टेटरशाही की गुंजाइश नहीं, दोनों को एक-दूसरे को समझना, सहना और निबाहना होगा । दोनों में से जो हुक्म चलाना भर जानता है, अपना पूर्ण आज्ञनुवर्ती बनाना चाहता है, वह गृह-शान्ति में आग लगाता है । दो मनुष्य अलग-अलग प्रकृति के ही होते और रहते हैं, उनका पूणर्तया एक में घुल-मिल जाना सम्भव नहीं । जिनमें अधिक सामंजस्य और कम मतभेद दिखाई पड़ता हो, समझना चाहिए कि वे सद्गृहस्थ हैं । मतभेद और प्रकृति भेद का पूणर्तया मिट सकना तो कठिन है । सामान्य स्थिति में कुछ न कुछ विभेद बना ही रहता है, इसे जो लोग शान्ति और सहिष्णुता के साथ सहन कर लेते हैं, वे समन्ववादी व्यक्ति ही गृहस्थ का आनन्द ले पाते हैं । भूलना न चाहिए कि हर व्यक्ति अपना मान चाहता है । दूसरे का तिरस्कार कर उसे सुधारने की आशा नहीं की जा सकती । अपमान से चिढ़ा हुआ व्यक्ति भीतर ही भीतर क्षुब्ध रहता है । उसकी शक्तियाँ रचनात्मक दिशा में नहीं, विघटनात्मक दिशा में लगती हैं । पति या पतनी में से कोई भी गृह व्यवस्था के बारे में उपेक्षा दिखाने लगे, तो उसका परिणाम आथिर्क एवं भावनात्मक क्षेत्रों में विघटनात्मक ही होता है । दोनों के बीच यह समझौता रहना चाहिए कि यदि किसी कारणवश एक को क्रोध आ जाए, तो दूसरा तब तक चुप रहेगा, जब तक कि दूसरे का क्रोध शान्त न हो जाए । दोनों पक्षों का क्रोधपूवर्क उत्तर-प्रत्युत्तर अनिष्टकर परिणाम ही प्रस्तुत करता है । इन तथ्यों को दोनों ही ध्यान में रखें ।

व्रत धारण की आवश्यकता-

जिस प्रकार जन्मदिन के अवसर पर कोई बुराई छोड़ने और अच्छाई अपनाने के सम्बन्ध में प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, उसी तरह विवाह दिवस के उपलक्ष में पतिव्रत और पत्नीव्रत को परिपुष्ट करने वाले छोटे-छोटे नियमों को पालन करने की कम से कम एक-एक प्रतिज्ञा इस अवसर लेनी चाहिए । परस्पर 'आप या तुम' शब्द का उपयोग करना 'तू' का अशिष्ट एवं लघुता प्रकट करने वाला सम्बोधन न करना जैसी प्रतिज्ञाएँ तो आसानी से ली जा सकती है । पति द्वारा इस प्रकार की प्रतिज्ञाएँ ली जा सकती है ।
. कटुवचन या गाली आदि का प्रयोग न करना ।
. कोई दोष या भूल हो, तो उसे एकान्त में ही बताना-समझाना, बाहर के लोगों के सामने उसकी तनिक भी चर्चा न करना ।
. युवती-स्त्रियों के साथ अकेले में बात न करना ।
. पतनी पर सन्तानोत्पादन का कम से कम भार लादना ।
. उसे पढ़ाने के लिए कुछ नियमित व्यवस्था बनाना । ‍
. खर्च का बजट पत्नी की सलाह से बनाना और पैसे पर उसका प्रभुत्व रखना ।
. गृह व्यवस्था में पत्नी का हाथ बँटाना ।
. उसके सद्गुणों की समय-समय पर प्रशंसा करना ।
. बच्चों की देखभाल, साज-सँभाल, शिक्षा-दीक्षा पर समुचित ध्यान देकर पत्नी का काम सरल करना ।
१०. पर्दा का प्रतिबन्ध न लगाकर उसे अनुभवी-स्वावलम्बी होने की दिशा में बढ़ने देना ।
११. पतनी की आवश्यकताओं तथा सुविधाओं पर समुचित ध्यान देना आदि-आदि । पतनी द्वारा भी इसी प्रकार की प्रतिज्ञाएँ की जा सकती हैं, जैसे-
. छोटी-छोटी बातों पर कुढ़ने, झल्लाने या रूठने की आदत छोड़ना ।
. बच्चों से कटु शब्द कहना, गाली देना या मारना-पीटना बन्द करना ।
. सास, ननद, जिठानी आदि बड़ों को कटु शब्दों में उत्तर न देना ।
. हँसते-मुस्कराते रहने और सहन कर लेने की आदत डालना, परिश्रम से जी न चुराना, आलस्य छोड़ना । ५. साबुन, सुई, बुहारी इन तीनों को दूर न जाने देना, सफाई और मरम्मत की ओर पूरा ध्यान रखना ।
. उच्छृंखल फैशन बनाने में पैसा या समय तनिक भी खर्च न करना ।
. पति से छिपा कर कोई काम न करना ।
. अपनी शिक्षा योग्यता बढ़ाने के लिए नित्य कुछ समय निकालना ।
. पति को समाज सेवा एवं लोकहित के कार्यो में भाग लेने से रोकना नहीं, वरन् प्रोत्साहित करना ।
१०. स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने में उपेक्षा न बरतना । ‍
११. घर में पूजा का वातावरणर बनाये रखना, भगवान् की पूजा, आरती और भोग का नित्य क्रम रखना । १२. पर्दा के बेकार बन्धन की उपेक्षा करना ।
१३. पति, सास आदि के नित्य चरण स्पर्श करना । आदि-आदि ।
हर दाम्पत्य जीवन की अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं । अपनी कमजोरियों, भूलों दुबर्लताओं और आवश्यकताओं को वे स्वयं अधिक अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए उन्हें स्वयं ही यह सोचना चाहिए कि किन बुराइयों कमियों को उन्हें दूर करना है और किन अच्छाइयों को अभ्यास में लाना है । उपस्थित लोगों के सामने अपने संकल्प की घोषणा भी करनी चाहिए, ताकि उन्हें उसके पालने में लोक-लाज का ध्यान रहे, साथ ही जो उपस्थित हैं, उन्हें भी वैसी प्रतिज्ञाएँ करने के लिए प्रोत्साहन मिले ।

संस्कार क्रम-

विवाह दिवसोत्सव, विवाह संस्कार के संक्षिप्त संस्करण के रूप में मनाया जाता है । उसी कमर्काण्ड प्रक्रिया का सहारा लेकर उसे नीचे लिखे क्रम से कराया जाना चाहिए- मंगलाचरण - षट्कर्म कलश पूजन आदि कृत्य सम्पन्न करके संकल्प करें । देवशक्तियों और और सत्पुरुषों की साक्षी में संकल्प बोला जाए-...........नामाऽहं दाम्पत्यजीवनस्य पवित्रता-मयार्दयोः रक्षणाय त्रुटीनाञ्च प्रायश्चितकरणाय उज्ज्वलभविष्यद्धेतवे स्वोत्तरदायित्वपालनाय संकल्पमहं करिष्ये । संकल्प के बाद समय की सीमा का ध्यान रखते हुए देवपूजन, स्वस्तिवाचन आदि क्रम विस्तृत या संक्षिप्त रूप से कराया जाना चाहिए । सामान्य क्रम पूरा हो जाने पर विवाह पद्धति के मन्त्रों का प्रयोग करते हुए नीचे लिखे क्रम से निधार्रित विशेष उपचार कराये जाएँ-
. ग्रन्थिबन्धन ,
. पाणिग्रहण ,
. वर-वधू की प्रतिज्ञाएँ ,
. सप्तपदी
. आश्वास्तना ।
- आहुति- यज्ञ करें तो अग्निस्थापन , गायत्री मन्त्राहुति, प्रायश्चित्ताहुति करके पूणार्हुति करें । यदि यज्ञ करने की स्थिति न हो, तो दीपयज्ञ करें । पाँच दीप सजाकर रखें, गायत्री मन्त्र बोलते हुए उन्हें प्रकाशित करें । प्रायश्चित्ताहुति के प्रथम मन्त्र के साथ पति-पत्नी दीपों की ओर अपनी हथेलियाँ करें, जैसे घृत अवघ्राण के समय करते हैं ।
. एकीकरण- पति-पत्नी एक-एक दीपक उठाएँ । नीचे लिखे मन्त्र पाठ के साथ ज्योतियों को मिलाकर एक ज्योति करें । भावना करें कि हम अपने व्यक्तियों को एक दूसरे के साथ इसी प्रकार एकाकार करने का प्रयास करेंगे । दैवी अनुग्रह और स्वजनों के सद्भाव उसमें सहायक होंगे ।
ॐ समानी वऽआकृतिः समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति । - अथवर्० ६.६४.
. अन्त में दम्पती पुष्पोहार मन्त्र से एक दूसरे को माल्यापर्ण करें । फिर सभी लोग मंगल मन्त्र बोलते हुए पुष्पावृष्टि करें, शुभकामना -आशीर्वाद् दें ।
. विसजर्न , जयघोष एवं प्रसाद वितरण के साथ कायर्क्रम का समापन किया जाए ।

हमारे संस्कार- जन्मदिवस संस्कार


मनुष्य को अन्यान्य प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है । जन्मदिन वह पावन पर्व है, जिस दिन स्रष्टा ने हमें श्रेष्ठतम जीवन में पदोन्तन किया । श्रेष्ठ जीवन प्रदान करने के साथ स्रष्टा प्राणी से उसी अनुरूप श्रेष्ठ आचरण की भी अपेक्षा रखता है । हमें उसे निराश करके अपने अंदर क्रमशः श्रेष्ठतर मानवोचित संस्कारों का विकास करने के संकल्प लेने चाहिए । उसके लिए अपने इष्टमित्रों-परिजनों की शुभकामनाएँ भी प्राप्त करनी चाहिए । युग ऋषि ने जन्मदिन को विवेक सम्मत संस्कार का रूप दिया है ।


व्याख्या

यों प्रचलित अनेक पर्व-त्यौहार आते और मनाये जाते हैं, पर व्यक्तिगत दृष्टि से मनुष्य का अपना जन्मदिन ही उसके लिए सबसे बड़े हर्ष, गौरव एवं सौभाग्य का दिन हो सकता है । राम के जन्मदिन की तिथि रामनवमी और कृष्ण का जन्मदिन-जन्माष्टमी जितनी महत्त्वपूर्ण है, उतना ही किसी सामान्य व्यक्ति के जीवन में उसका जन्मदिन किसी भी प्रकार कम आनन्द एवं उल्लास का नहीं होता । उसे ठीक तरह मनाया जाए, तो अपना प्रसुप्त आन्ान्द और उल्लास जगेगा ।
इसी अवसर पर यदि थोड़ा अधिक गंभीर आत्म-निरीक्षण कर लिया जाए और आगे के लिए कुछ ठोस सदुपयोग की बात सोच ली जाए, तो वह दिन एक नये सूर्योदय जैसा प्रकाशवान् हो सकता है । बुद्ध, वाल्मिकी, सूरदास, तुलसी, अंगुलिमाल आदि के पूर्व जीवन बहुत अच्छे न थे, पर एक दिन उनकी अन्तःस्फुरणा जग पड़ी, तो उनने अपनी दिशा ही बदल दी । यह बदलना इतना महत्त्वपूर्ण हुआ कि वे नर से नारायण बन गये । जन्मदिन की उल्लास भरी घड़ी में यदि मनुष्य यत्किंचित् भी आत्म-निर्माण की बात सोचने लगे, तो वह उसी अनुपात में उसके सौभाग्य की घड़ी सिद्ध हो सकती है ।
जन्मदिन दिखने में सामान्यः, किन्तु प्रभाव में असामान्य संस्कार है । किसी वर्ग किसी भी स्तर के व्यक्तियों के बीच इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है । एक इसी संस्कार के माध्यम से न चेतना को झकझोर कर सदाशयता से जोड़ देने का काम बड़ी कुशलता से सम्पन्न किया जा सकता है । सभी सृजन शिल्पियों को कटिबद्ध होकर इसे लोकप्रिय बनाना चाहिए ।
विशेष व्यवस्था
जन्म दिन संस्कार यज्ञ के साथ ही मनाया जाना चाहिए । अन्तःकरण को प्रभावित करने की यज्ञ की अपनी क्षमता विशेष है, परन्तु चूँकि इसे जन-जन का आन्दोलन बनाना है । इसलिए यदि परिस्थितियाँ अनुकूल न हों, तो केवल दीपयज्ञ करके भी जन्मदिन संस्कार कराये जा सकते हैं । नीचे लिखी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखी जाएँ । पंच तत्त्व पूजन के लिए चावल की पाँच छोटी ढेरियाँ पूजन वेदी पर बना देनी चाहिए । पाँच तत्त्वों के लिए पाँच रंग के चावल भी रंग कर अलग-अलग छोटी डिब्बियों या पुड़ियों में रखे जा सकते हैं । उनकी रंगीन ढेरियाँ लगा देने से शोभा और भी अच्छी बन जाती है । तत्त्वों के क्रम और रंग इस प्रकार हैं-
. पृथ्वी-हरा,
. वरुण-काला,
. अग्नि-लाल,
. वायु-पीला और
. आकाश-सफेद ।
इसी क्रम से ढेरियाँ लगाकर रखनी चाहिए । दीपदान-जन्मोत्सव के लिए दीपक बनाकर रखें जाएँ । जितने वर्ष पूरे किये हों, उतने छोटे दीपक तथा नये वर्ष का थोड़ा दीपक बनाया जाए । दीपक आटे के भी बनाये जा सकते हैं और मिट्टी के भी रखे जा सकते हैं । अभाव में मोमबत्तियों के टुकड़े भी प्रयुक्त किये जा सकते हैं, उन्हें थाली या ट्रे में सुन्दर आकारों में सजाकर रखना चाहिए । व्रत धारण में क्या व्रत लिया जाना है? इसकी चर्चा पहले से ही कर लेनी चाहिए ।

विशेष कर्मकाण्ड

अन्य संस्कारों की तरह मंगलचारण से रक्षाविधान तक के उपचार पूरे किये जाएँ । इसके बाद क्रमशः ये कर्मकाण्ड कराये जाएँ ।

पंचतत्त्व पूजन

शिक्षण एवं प्रेरणा- शरीर पंच तत्त्व से बना है । इस संसार का प्रत्येक पदार्थ मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँच तत्त्वों से बना है । इसलिए इस सृष्टि के आधारभूत ये पाँच ही दिव्य तत्त्व देवता है । उपकारी के प्रति कृतज्ञता की भावनाओं से अन्तःकरण ओत-प्रोत रखना भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है । हम जड़ और चेतन सभी उपकारियों के प्रति कृतज्ञता-भावना की अभिव्यक्ति के लिए पूजा-प्रक्रिया का अवलम्बन लेते हैं । पूजा से इन जड़ पदार्थों, अदृश्य शक्तियों, स्वर्गीय आत्माओं का भले ही कोई लाभ न होता हो, पर हमारी कृतज्ञता का प्रसुप्त भाव जाग्रत् होने से हमारी आंतरिक उत्कृष्टता बढ़ती ही है । पंच तत्त्वों का पूजन विश्व के आधार स्तम्भ होने की महत्ता के निमित्त किया जाता है । इस पूजन का दूसरा उद्देश्य यह है कि इन पाँचों के सदुपयोग का ध्यान रखा जाए । शरीर जिन तत्त्वों से बना है, उनका यदि सही रीति-नीति से उपयोग करते रहा जाए, तो कभी भी अस्वस्थ होने का अवसर न आए । पृथ्वी से उत्पन्न अन्न का जितना, कब और कैसे उपयोग किया जाए, इसका ध्यान रखें तो पेट खराब न हो । यदि आहार की सात्त्विकता, मात्रा एवं व्यवस्था का ध्यान रखा जाए, तो न अपच हो और न किसी रोग की संभावना बने । जल की स्वच्छता एवं उचित मात्रा में सेवन करने का, विधिवत स्नान का, वस्त्र, बर्तन, घर आदि की सफाई, जल के उचित प्रयोग का ध्यान रखा जाए, तो समग्र स्वच्छता बनी रहे, शरीर मन, तथा वातावरण सभी कुछ स्वच्छ रहे । अग्नि की उपयोगिता सूर्य ताप को शरीर, वस्त्र, घर आदि में पूरी तरह प्रयोग करने में है । भोजन में अग्नि का सदुपयोग भाप द्वारा पकाये जाने में है । शरीर की भीतरी अग्नि ब्रह्मचर्य द्वारा सुरक्षित रहती एवं बढ़ती है । स्वच्छ वायु का सेवन, खुली जगहों में निवास, प्रातः टहलने जाना, प्राणायाम, गन्दगी से वायु का दूषित न होने देना आदि वायु की प्रतिष्ठा है । आकाश की पोल में ईथर, विचार शब्द आदि भरे पड़े हैं, उनका मानसिक एवं भावना क्षेत्र में इस प्रकार उपयोग किया जाए कि हमारी अंतःचेतना उत्कृष्ट स्तर की ओर चले, यह जानना, समझना आकाश तत्त्व का उपयोग है । इसी सदुपयोग के द्वारा हम सुख-शान्ति और समृद्धि का पथ-प्रशस्त कर सकते हैं ।
पंच तत्त्वों का पूजन, हमारा ध्यान इनके सदुपयोग की ओर आकर्षित करता है । तीसरी प्रेरणा यह है कि शरीर पंच तत्त्वों का बना होने के कारण जरा, मृत्यु से बँधा हुआ है । यह एक वाहन और माध्यम है । जड़ होने के कारण इसका महत्त्व कम है । इसे एक उपकरण मात्र माना जाए । शरीर की सुख-सुविधा को इतना महत्त्व न दिया जाए कि आत्मा के स्वार्थ पिछड़ जाएँ । आत्मा की उन्नति के लिए पंच तत्त्वों से बना यह शरीर मिलता है, इसलिए उसका सदुपयोग निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही किया जाए । क्रिया और भावना- प्रत्येक तत्त्व के पूजन के पूर्व उसकी प्रेरणाएँ उभारी जाएँ । हाथ में अक्षत, पुष्प देकर मन्त्रोच्चार के साथ सम्बन्धित प्रतीक पर अर्पित कराएँ । भावना की जाए कि सृष्टि रचना के इन घटकों के अन्दर जो सूक्ष्म संस्कार हैं, वे पूजन के द्वारा साधक को प्राप्त हो रहे हैं ।

पृथ्वी

ॐ मही द्यौः पृथिवी च न ऽ, इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतां नो भरीमभिः । ॐ पृथिव्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -.३२

वरुण

ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानः, तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः । अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश, स मा नऽ आयुः प्रमोषी॥ ॐ वरुणाय नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -१८.४९

अग्नि

ॐ त्वं नो ऽ अग्ने वरुणस्य, विद्वान् देवस्य हेडोऽ अवयासिसीष्ठाः । यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो, विश्वा द्वेषा सि प्रमुमुग्ध्यस्मत् । ॐ अग्नये नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -२१.३ ॥ वायु॥ ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर , सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम् । वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व, यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः । ॐ वायवे नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -२७.२८

आकाश

ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम् । उपयामगृहीतोऽस्यश्विभ्यां, त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा । ॐ आकाशाय नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -.११

दीपदान

शिक्षण और प्रेरणा- जन्मोत्सव का दूसरा कर्मकाण्ड दीपदान है । जितने वर्ष की आयु हो, उतने दीपक एक सुसज्जित चौकी पर बनाकर सजाये जाते हैं । आटे के ऊपर बत्ती वाले घृत दीप एक थाली में इस तरह सजाकर रखे जा सकते हैं कि उनका '' स्वस्तिक अथवा कोई और सुन्दर रूप बन जाए । इन दीपकों के आसपास पुष्प, फल, धूपबत्तियाँ, गुलदस्ते या कोई दूसरी चीजें सुन्दरता बढ़ाने के लिए रखी जा सकती है । कलात्मक सुरुचि भीतर हो, तो सुसज्जिता के अनेक प्रकार बन सकते हैं । इन दीपकों का पूजन किया जाता है । जीवन का प्रत्येक वर्ष दीपक के समान प्रकाशवान् रहे, तभी उसकी सार्थकता है । दीपक स्वयं तिल-तिल करके जलता है और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करता है, इस रीति-नीति का प्रतीक होने के कारण ही दीपक को प्रत्येक मांगलिक कार्य में पूजा जाता है एवं उसे प्रधानता मिलती है ।
हमारे जीवन की रीति-नीति भी ऐसी ही होनी चाहिए । दीपक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है । अज्ञान को अन्धकार व ज्ञान को प्रकाश की उपमा दी जाती है । जिस सीमा तक हमारा मस्तिष्क या हृदय अज्ञानग्रस्त है, उतना ही हम अन्धेरे में भटक रहे हैं । मस्तिष्क का अंधकार दूर करने के लिए हमें शिक्षा और हृदय का अंधकार दूर करने के लिए विद्या-ऋतम्भरा ज्ञान का अधिकाधिक मात्रा में संग्रह करना चाहिए । आत्मज्ञान का वैसा दीपक हमें अंतःकरण में जलाना चाहिए, जैसा रामायण के उत्तरकाण्ड में विस्तारपूर्वक बताया गया है । दीपदान में ऐसी ही अनेक प्रेरणाएँ सन्निहित हैं ।
क्रिया और भावना- थाली में सजाये दीपकों को क्रमशः प्रज्वलित किया जाए । उसके साथ सस्वर गायत्री मन्त्र का पाठ चलाएँ । यदि यज्ञ न करके केवल दीपयज्ञ ही करना हो, तो गायत्री मन्त्र के साथ स्वाहा लगाकर दीपक जलाने की प्रक्रिया को आहुति मानते हुए यज्ञीय वातावरण बनाया जाए । भावना की जाए कि मनुष्य कितने भी कम साधनों में जी रहा हो, छोटे से नाचीज दीपक की तरह सबका प्रिय प्रकाशदाता बन सकता है । छोटी सी पात्रता, थोड़ा सा स्नेह और जरा-सी वर्तिका (लगन) को ठीक क्रम से सजाकर ज्योतिदान प्राप्त कर सकता है । ज्योतित जीवन की कामना, प्रार्थना करते हुए दिव्य शक्तियों द्वारा उसकी पूर्ति की भावना की जानी चाहिए ।
ॐ अग्निज्र्योतिज्र्योतिरग्निः स्वाहा । सूर्यो ज्योतिज्र्योतिः सूर्यः स्वाहा । अग्निर्वचार्े ज्योतिर्वर्चः स्वाहा । सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वच्चः स्वाहा । ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा॥
-३६.२४-

व्रतधारण

अगला क्रम जन्मोत्सव का व्रत धारण है । व्रतों के बन्धन में बँधा हुआ व्यक्ति ही किसी उच्च लक्ष्य की ओर दूर तक अग्रसर हो सकने में समर्थ होता है । मनुष्य को शुभ अवसरों पर भावनात्मक वातावरण में देवताओं की उपस्थिति में-अग्नि की साक्षी में वातावरण करने चाहिए और उनका पालन करने के लिए साहस एकत्रित करना चाहए ।
शिक्षण एवं प्रेरणा- दुष्प्रवृत्तियों का त्याग, व्रतशीलता का आरम्भिक चरण है । मांसाहार, तम्बाकू, भाँग, गाँजा, अफीम, शराब आदि नशों का सेवन, व्यभिचार, चोरी, बेईमानी, जूआ, फैशन-परस्ती, आलस्य, गंदगी, क्रोध, चटोरापन, कामुकता, शेखीखोरी, कटुभाषण, ईष्र्या, द्वेष, कृतघ्नता आदि बुराइयों को जो अपने में विद्यमान हों, उन्हें छोड़ना चाहिए । कितनी ही भयानक कुरीतियाँ हमारे समाज में ऐसी हैं, जो अतीव हेय होते हुए भी धर्म के नाम पर प्रचलित हैं । किसी वंश में जन्म लेने के कारण किसी को नीच मानना, स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अनधिकारिणी समझना, विवाहों में उन्मादी की तरह पैसे की होली फूँकना, दहेज, मृत्युभोज, देवताओं के नाम पर पर पशुबलि, भूत-पलीत, टोना-टोटका, अन्धविश्वास, शरीर को छेदना या गोदना, गाली-गलौज की असभ्यता, बाल-विवाह, अनमेल विवाह, श्रम का तिरस्कार आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं । इन मान्यताओं के विरुद्ध-विद्रोह करने की आवश्यकता है । इन्हें तो स्वयं हमें ही त्यागना चाहिए । इसी प्रकार अनेक बुराइयाँ हो सकती हैं । उनमें से जो अपने में हों, उन्हें संकल्पपूर्वक त्यागने के लिए जन्म दिन का शुभ अवसर बहुत ही उत्तम है ।
यदि इस प्रकार की बुराइयाँ न हों, उन्हें पहले से ही छोड़ा जा चुका हो, तो अपने में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का व्रत इस अवसर पर ग्रहण करना चाहिए । रात को जल्दी सोना, प्रातः जल्दी उठना, व्यायाम, नियमित उपासना, स्वाध्याय, गुरुजनों का चरण स्पर्शपूर्वक अभिवादन, सादगी, मितव्ययिता, प्रसन्न रहने की आदत, मधुर भाषण, दिनचर्या बनाकर समय क्षेप, निरालस्य, परिवार निर्माण के लिए नियमित समय देना, लोकसेवा के लिए समयदान आदि अनेक सत्कार्य ऐसे हो सकते हैं, जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित किये जाने चाहिए । इस प्रकार की कम से कम एक अच्छी आदत अपनाने का संकल्प लेना चाहिए और कम से कम एक बुराई भी उसी अवसर पर छोड़ देना चाहिए । ये दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ने और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने का क्रम यदि हर जन्म दिन पर चलता रहे, तो कुछ ही वर्षों में उसका परिणाम व्यक्तित्व में कायाकल्प की तरह दृष्टिगोचर होने लगेगा और जन्मोत्सवों का क्रम जीवन में दैवी वरदान की तरह मंगलमय परिणाम प्रस्तुत कर सकेगा ।
क्रिया और भावना-लिये गये व्रतों का उल्लेख किया जाए । उनका स्मरण रखते हुए व्रतपति देवशक्तियों से उनकी वृत्ति एवं शक्ति सहित मार्गदर्शन की याचना करें । दोनों हाथ उठाकर व्रतधारण के मन्त्र बोलें-

ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि
, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥१॥
ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि
, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥२॥
ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि
, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥३॥
ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि
, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥४॥ ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥५॥-मं० ब्रा० १..-१३

विशेष-आहुति
व्रत धारण के बाद यज्ञादि क्रम पूरे किये जाएँ । गायत्री मन्त्र की आहुति के बाद मृत्युञ्जय मन्त्र की आहुतियाँ दी जाएँ । यदि केवल दीपयज्ञ किया गया हो, तो सभी लोग ५ बार मृत्युञ्जय मन्त्र का सस्वर पाठ करें ।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्यर्ोमुक्षीय मामृतात् स्वाहा । इदं महामृत्युञ्जयाय इदं न मम । -.६०
इसके बाद यज्ञ के शेष उपचार पूरे करके आश्शीर्वाद आदि के साथ समापन किया जाए ।